एक बड़ी पहल में मोहाली के फोर्टिस हॉस्पिटल में एक के बाद एक तीन सफल किडनी ट्रांसप्लांट ऑपरेशन किए गए जहां मरीजों के ब्लड ग्रुप भी एक से नहीं थे। ओम प्रकाश, संतोष कुमारी और सरोज को किडनी ट्रंासप्लांट के बाद नई जिंदगी मिली जो इससे पहले कई सालों से उनके लिए नामुमकिन सा था। फोर्टिस मोहाली के इन्कंपैटिबल किडनी प्रोग्राम की सर्जिकल डायरेक्टर डॉ. प्रियदर्शिनी रंजन ने यह जानकारी दी कि अब ब्लड ग्रुप समान न होने पर भी सभी ब्लड ग्रुप्स में किडनी ट्रांसप्लांट करना मुमकिन है। डॉ. रंजन ने यूएसए के जॉन्स हॉप्किंस के इन्कंपैटिबल किडनी ट्रांसप्लांट सेंटर से ट्रेनिंग हासिल की है और इस समय वह देश के इकलौते सर्टिफाइड किडनी ट्रांसप्लांट सर्जन हैं जो ट्रांसप्लांट के ऐसे पेचीदा केस हाथ में ले सकते हैं।डॉ. रंजन ने बताया कि भारत में हमने हाल फिल्हाल ही ऐसे पेचीदा किडनी ट्रांसप्लांट सर्जरी केस लेने शुरू किए हैं, जबकि विकसित देशों में यह एक रुटीन सा बन गया है। उन्होंने प्रो. रॉबर्ट मोंटगोमरी, जिन्हें इन्कंपैटिबल किडनी प्रोग्राम का पिता भी कहा जाता है, के साथ किए काम के अनुभव को सांझा करते हुए बताया कि ऐसे ट्रांसप्लांट अब एक हकीकत बन गए हैं। इन मरीजों के लिए हमनें 'हॉप्किंस प्रोटोकॉल अपनाया है और हम हॉप्किंस के स्टैंडर्ड के हिसाब से अपनी एंटीबॉडी और प्लासमाफेरेसिस लैब्स भी विकसित कर रहे हैं।
ट्रांसप्लांट नेफरोलॉजिस्ट्स डॉ. एच.जे.एस. गिल और डॉ. अमित शर्मा की मौजूदगी में डॉ. रंजन ने तीनों मरीजों और उनके डोनर्स को मीडिया से मुखातिब करवाया। इन सभी मरीजों को अब अस्पताल से डिस्चार्ज किया जा चुका है और वह रुटीन में एक आम किडनी ट्रांसप्लांट प्रापक की तरह अपनी जिंदगी जी रहे हैं।अब तक कोई भी ट्रांसप्लांट मरीज किसी ऐसे व्यक्ति से अंग ले सकता था जिसका ब्लड ग्रुप उससे मेल खाता हो। यदि ब्लड ग्रुप में समानता न हो तो डोनर से लिया गया अंग असुरक्षित और आघात करने योग्य माना जाता था। पर अब इम्यून कंडीशनिंग की प्रक्रिया से प्रापक अलग ब्लड ग्रुप वाले डोनर से किडनी ले सकता है, यह जानकारी डॉ. रंजन ने दी। यह नई प्रक्रिया फिल्हाल देश के चुनिंदा ट्रांसप्लांट सेंटर्स पर ही उपलब्ध करवाई जा रही है। जहां तक बात मरीजों की है, ये तीनों एक महीने से अपने घर पर आम जिंदगी जी रहे हैं।
ओम प्रकाश के लिए किडनी की समस्या रोज की जिंदगी का हिस्सा थी। उन्होंने बताया कि तीन साल पहले मेरी किडनी हाई ब्लड प्रेशर की वजह से फेल हो गई और मैं डायलेसिस पर जी रहा था। जब मुझे किडनी ट्रांसप्लांट की सलाह मिली तो नई दुविधा यह पैदा हो गई कि मेरे पास परिवार में समान ब्लड ग्रुप वाला कोई डोनर नहीं था। आप जब डायलेसिस मशीन पर निर्भर करते हैं तो जिंदगी का काफी वक्त उसी में गंवा देते हैं। यह आपको जीने का मौका तो देती है पर आप इससे बंधे होते हैं और साथ ही खाने-पीने में भी बहुत प्रतिबंध होते हैं।डॉ. रंजन से बातचीत करने के बाद प्रकाशो देवी ने अपनी किडनी ओम प्रकाश को डोनेट करने का फैसला लिया, हालांकि उनका ब्लड ग्रुप टाइप ए है और मरीज का टाइप ओ। प्रकाशो के पास दूसरा रास्ता यह था कि अपने से मिलते-जुलते ब्लड ग्रुप वाले को किडनी दान कर सकती थीं और बदले में ओम प्रकाश के लिए टाइप ओ वाली किडनी ले सकती थीं। सरोज और संतोष के साथ भी कुछ ऐसी ही वेतना थी। इन सभी का ब्लड ग्रुप ओ था और किसी के पास मेल खाता डोनर नहीं था।
डॉ. रंजन ने जानकारी दी कि ट्रांसप्लांट के लिए हमेशा से एक जैसे ब्लड ग्रुप होने जरूरी होते थे। कुल चार तरह के ब्लड ग्रुप होते हैं -ए, बी, एबी और ओ। टाइप ए, ए और ओ के साथ मैच कर सकता था। टाइप बी, बी और ओ के साथ। टाइप एबी का मेल ऐबी, ए, बी या ओ के साथ हो सकता था पर टाइप ओ के लिए टाइप ओ ही अनिवार्य था। और अगर आप किसी दूसरे ब्लड ग्रुप का ट्रांसप्लांट लेते थे तो आपका शरीर पूरी तरह खत्म भी हो सकता था। 1989 में जापानी वैज्ञानिकों ने ए-बी-ओ इन्कंपैटिबल ट्रांसप्लांट पर काम करना शुरू किया। उन्होंने प्लास्माफेरेसिस प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जहां वे मरीज के प्लास्मा में से एंटीबॉडी निकालकर प्लास्मा में अलग ब्लड ग्रुप डाल देते थे। 2001 में यूएस के मायो क्लीनिक और जॉन्स हॉप्किंस में प्लास्माफेरेसिस शुरू किया गया और भारत में 2009 में। पिछले दो सालों से यह फोर्टिस कॉम्प्रीहेन्सिव किडनी ट्रांसप्लांट सेंटर में उपलब्ध है। नेफरोलॉजिस्ट और ट्रांसप्लांट फिजीशियन डॉ. एच.जे.एस. गिल ने बताया कि भारत में यह सुविधा 10 फीसदी से भी कम मेडिकल सेंटर्स में उपलब्ध है।