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बर्फीला तूफान यानी मौत की सुनामी

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28 Jan 2017

'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुबार्नी..' कवि प्रदीप का यह गीत सिर्फ गीत नहीं है। यह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का प्रतीक है। आज प्रदीप हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन देशभक्ति की भावना से भीगे इस गीत को यौम-ए-आजादी यानी 15 अगस्त और 26 जनवरी को खूब बजाया जाता है।
जब इस गीत का रिकार्ड बजता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हर भारतीय का सीना गर्व से फूल उठता है। उसके अंदर एक सैनिक का जज्बा जाग उठता है, जिसका मकसद सिर्फ मातृभूमि के लिए शहीद होना है।
सेना हमारे सरहद की निगहबानी करती है, लेकिन उसके लिए हमारी चिंता कितनी है, सवाल इस बात का है। श्रीनगर के गुरेज सेक्टर में एवलांच यानी बर्फीले तूफान से 15 जवानों की मौत ने देश को हिलाकर रख दिया। एवलांच मौत की सुनामी बन कर आया। हमने अपने जाबाज जवानों को बेमतलब खो दिया है। जवान दुश्मन के खिलाफ जंग लड़ते नहीं प्राकृतिक कहर में मारे गए। वह भी जिस चौकी पर हमारे जवान शहीद हुए वह हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
हमारे सैनिक इस प्राकृतिक आपदा का शिकार क्यों हुए। क्या हमारे पड़ोसी मुल्क चीन, अमेरिका और रूस के जवान भी बर्फीली सीमा पर इस तरह शहीद होते हैं। अगर नहीं तो हमने क्या इस बारे में कभी सोचा? जवानों की सुरक्षा के लिए हमने कोई तंत्र अब तक क्यों नहीं विकसित किया? सिर्फ जवानों की शहादत पर घड़ियाली आंसू बहाने से क्या हम जिम्मेदारियों से बच सकते हैं।
सोशल मीडिया पर भोजन और सुविधाओं को लेकर वायरल हुई जवानों की अभिव्यक्ति जांच का विषय बन सकती है। सियासतदां सरकार को घेरने के लिए हंगामा खड़ा कर सकते हैं। गृहमंत्रालय मामले की जांच का आदेश दे सकता। जवानों की सुरक्षा और सुविधाओं पर बहस क्यों नहीं होती? जवान क्या सिर्फ शहीद होने के लिए आया है? जिस पर देश की सीमा की जिम्मेदारी है, उसकी सुरक्षा की जबाबदेही क्या हमारी नहीं बनती है?हम मानते हैं कि प्राकृतिक आपदाओं से निपटना इतना आसान नहीं है, लेकिन इसके लिए कुछ ठोस कदम तो हमारी तरफ से उठाए जा सकते हैं।
आज तक एवलांच या दूसरे तरह की प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए हमारे पास कोई तकनीकी तंत्र नहीं है। आपको याद होगा, पिछले वर्ष फरवरी 2016 में भी हमारे 10 जवान इसी तरह शहीद हुए थे, जिसमें मेजर हनुमनथप्पा भी शामिल थे, जिन्हें कई दिन बाद बर्फ से बाहर निकाला गया, लेकिन हम उन्हें बचा नहीं पाए। हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में एवलांच यानी बर्फीला तूफान सामान्य बात है। जिस एवलांच में हमारे 15 जवान शहीद हो गए, वह 10 साल बाद आया। ठंड के मौसम में हिमस्खलन समान्य घटना है। हजारों फीट ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं पर बर्फीले तूफान की वजह से मोटी परत जम जाती है।
अधिक दबाब की वजह से जब यह नीचे आती है तो इसे एवलांच कहा जाता है। इसकी गति सीमा 100 से 150 किमी प्रतिघंटा की होती है, जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते।एवलांच की सुनामी में सामने जो भी होता है, वह सैकड़ों फीट नीचे चला जाता है। हिमालय की श्रृंखलाओं में मौत की यह सुनामी तीन बार आई, जिसकी वजह से श्रीनगर के गुरेज और दूसरे सेक्टरों में हमारे जवानों को शहीद होना पड़ा। जवान 20 हजार फीट की ऊंचाइयों पर रात दिन सीमा की सुरक्षा करते हैं। यहां आम इंसान पहुंच भी नहीं सकता और अधिक समय तक वह जिंदा भी नहीं रह सकता। उस कठिन परिस्थिति में हमारी सरहद की निगहबानी जांबाज ही करते हैं।
जवानों का एक-एक कदम जोखिम भरा होता है। यंत्रों के माध्यम से जांच परख के बाद वह अपना कदम बढ़ाते हैं। एक-दूसरे के साथ रस्सियों के सहारे आपस में बंधे होते हैं। ऑक्सीजन कम होने से सांस लेना भी मुश्किल होता है। बर्फीली गर्तो में समाने का डर हमेशा बना रहता है। वहां तापमान माइनस से कई डिग्री नीचे रहता है। सफेद बर्फ पर जब सूरज की रौशनी पड़ती है तो उससे आंखों की रौशनी जाने का भी खतरा बना रहता है। इसीलिए जवान विशेष प्रकार का चश्मा पहनते हैं। एवलांच से जवानों को कैसे सुरक्षित रखा जाए अभी तक इसकी तकनीक विकसित नहीं हो पाई है। यह हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी नाकामी है।
इस पर कभी विचार नहीं किया गया कि एवलांच जैसे बर्फीले तूफान से सीमा पर तैनात जवानों को कैसे बचाया जाए।हम मंगल ग्रह पर सिर्फ तीन साल में उपग्रह भेज कर अपनी कामयाबी का झंडा बुलंद कर सकते हैं। मिसाइल तकनीक में दुनिया में भारत का लोहा मनवा सकते हैं, लेकिन जवानों की सुरक्षा के लिए वैज्ञानिक कसौटी पर खरा सुरक्षा कवच नहीं तैयार कर सकते। आखिर क्यों? यह कितने शर्म और दुख की बात है। डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गनाइजेशन यानी डीआरडीओ ने 2004 में डब्लूपीएमएस नामक सिस्टम विकसित करने की प्लानिंग बनाई थी।
जिसे वैरियबल साइकोलॉजिकल मॉनिटरिंग सिस्टम का नाम दिया था। संक्षिप्त में उसे स्मार्ट वेस्ट भी कहा गया। इस तकनीक के माध्यम से बर्फीली सीमा पर तैनात जवानों को एक सेंसर लगी जैकेट दी जाती। उस सेंसर के जरिए जवानों की पूरी लोकेशन और स्वास्थ्य की जानकारी कमांडिंग कंट्रोल कैंप को मिलती रहती।संयोग से अगर जवानों की टीम हिमस्खलन या बर्फीले तूफान में फंस गया तो सेंसर के जरिए वह जानकारी बेसकैंप तक पहुंच जाती, जिससे पूरी यूनिट सतर्क हो जाती और फंसे जवान को सुरक्षित निकालने का प्रसास किया जाता। स्मार्ट वेस्ट तकनीक पर 12 साल से अधिक वक्त गुजरने के बाद तक अभी तक हम कुछ नहीं कर पाए हैं।
इसके लिए हम किसी एक सरकार और उसकी व्यस्था को दोषी नहीं ठहरा सकते।
सेना के संपूर्ण विकास और उसकी सुरक्षा के लिए अलग से रणनीति बनानी चाहिए। भारतीय सेना प्राकृतिक विषमताओं वाले दुर्गम इलाकों में काम करती है, जिससे उसके स्वास्थ्य और सुरक्षा का मसला हमेशा खड़ा रहता है। सेना के लिए एक खास वैज्ञानिक और तकनीकी यूनिट का विकास होना चाहिए, जिसका काम सिर्फ सेना की सुरक्षा और उसकी तकनीकी सुविधाओं का ख्याल रखे।
वह इस तरह की तकनीक विकसित करे, जिससे हमारे जवान विषम परिस्थितियों में सामान्य स्थिति की तरह अपनी सेवा बगैर किसी जोखिम के दे पाएं। इस घटना से सबक लेते हुए सरकार और सेना के साथ हमारे वैज्ञानिकों को सेंसर जैसी तकनीकी का विकास करना चाहिए। इसके अलावा मौसम वैज्ञानिकों को जलवायु परिवर्तन की सटीक जानकारी सेना कमांडिंग कोर को उपलब्ध करानी चाहिए, जिससे एवलांच जैसी सूनामी में जवानों को शहीद होने से बचाया जाए। (आईएएनएस/आईपीएन)।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)



 

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