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झारखंडी कौन? इस सवाल पर 21 साल से उलझा है झारखंड

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5 Dariya News

रांची , 27 Mar 2022

'झारखंडी' कौन? यह सवाल झारखंड में एक बार फिर सुलग रहा है। पूरे सूबे में सियासत गरम है। 25 फरवरी से लेकर 25 मार्च तक चला झारखंड विधानसभा का बजट सत्र इसी सवाल के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। पूरे सत्र के दौरान ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरा, जब स्थानीयता (डोमिसाइल) का मुद्दा नहीं उठा। सबसे अहम बात यह कि इस सवाल पर विपक्ष से ज्यादा सत्ता पक्ष के विधायक सबसे ज्यादा मुखर रहे। उन्होंने विधानसभा के द्वार पर धरना तक दिया। इसी मुद्दे को लेकर बीते एक महीने के दौरान अलग-अलग संगठनों के आह्वान पर तीन बार पूरे राज्य से हजारों लोग राजधानी रांची में जुटे और विधानसभा को घेरने की कोशिश की, लेकिन पुलिस-प्रशासन ने उन्हें राजधानी के आउटर एरिया में रोक दिया। धनबाद और बोकारो में भी बड़े प्रदर्शन हुए।झारखंड में डोमिसाइल का मसला आज अचानक सामने नहीं आया। देश के नक्शे पर बिहार से कटकर यह राज्य 15 नवंबर 2000 को वजूद में आया और स्थानीयता का सवाल भी तभी से उठा। तब से लेकर अब तक 21 साल गुजर गये, लेकिन इस सवाल का जवाब आज तक नहीं ढूंढ़ा जा सका है। डोमिसाइल का यह विवाद समझने के लिए पीछे चलना होगा। झारखंड की जो मौजूदा टेरिटरी (इलाका) है, वह 15 नवंबर 2000 के पहले संयुक्त बिहार का हिस्सा थी। 1950 से लेकर झारखंड अलग राज्य बनने तक इस टेरिटरी यानी इलाके में संयुक्त बिहार के दूसरे हिस्सों और देश के दूसरे प्रदेशों से बड़ी संख्या में लोग आये। ज्यादातर लोग यहां के माइंस और कल-कारखानों में नौकरी-रोजगार के सिलसिले में आकर बसे। मूल विवाद इसी बात पर है कि ऐसे लोगों और यहां जन्मी-पली-बढ़ी उनकी संतानों को झारखंड का डोमिसाइल (स्थानीय व्यक्ति) माना जाये या नहीं। झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की सरकार ने वर्ष 2002 में डोमिसाइल पॉलिसी बनाई। 

इसमें यह रूलिंग दी गयी कि झारखंड का डोमिसाइल (स्थानीय) उन्हें माना जायेगा, जिनके पूर्वजों के नाम ब्रिटिश हुकूमत के दौरान वर्ष 1932 में जमीन संबंधी सर्वे के कागजात में दर्ज होंगे। जमीन सर्वे के इस कागजात को खतियान कहा जाता है। 1932 के खतियान पर आधारित इस नीति की घोषणा होते ही पूरे झारखंड में बवाल हो गया। लोग इस नीति के पक्ष- विपक्ष में सड़कों पर उतर आये पूरे झारखंड में हिंसा की लपटें फैल गईं। झारखंड से सीधा ताल्लुकात रखने वाले यहां के पुराने बाशिंदे इसके पक्ष में और बाहर से आकर यहां बसे लोग इसके विरोध में आ गए। दोनों पक्षों के बीच संघर्ष शुरू हो गया। पूरा राज्य 'डोमिसाइल' की आग में झुलस गया। इस पॉलिसी की वजह से आगजनी, तोडफोड़ से लेकर हत्या तक की वारदातें हुई। बंद, पुलिस फायरिंग और कर्फ्यू के बीच दोनों पक्षों से पांच लोगों की जान चली गई। यह मामला झारखंड हाईकोर्ट में भी पहुंचा। कोर्ट ने नवंबर 2002 में बाबूलाल मरांडी सरकार की डोमिसाइल पॉलिसी खारिज कर दी। विवादित डोमिसाइल पॉलिसी की वजह से तत्कालीन राज्य सरकार के भीतर भी विरोधाभास पैदा हो गया और इसी वजह से अंतत: बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। इसके बाद 14 साल तक राज्य की किसी भी सरकार ने इस मुद्दे पर कोई निर्णय नहीं लिया। हाईकोर्ट से खारिज हुई डोमिसाइल पॉलिसी की जगह नई पॉलिसी बनाने के नाम पर सरकारों ने कई बार कमेटियां बनाईं, लेकिन 'झारखंडी कौन' की परिभाषा तय नहीं हो पाई। वर्ष 2014 में जब भाजपा ने रघुवर दास के नेतृत्व में राज्य में सरकार बनाई तो उन्होंने वादा किया कि वह स्थानीय नीति घोषित करेंगे। उन्होंने वादा निभाया और 18 अप्रैल 2016 को राज्य में स्थानीयता की नई पॉलिसी लागू की गई।

 इसमें वर्ष 1985 तक झारखंड के टेरिटरी में आकर बसे लोगों और उनकी संतानों को झारखंड के स्थानीय निवासी के रूप में परिभाषित किया गया। तब से यही पॉलिसी चली आ रही थी। 2019 में हुए विधानसभा चुनावों के पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा ने एलान किया कि अगर उसकी सरकार बनी तो रघुवर दास सरकार की बनाई स्थानीय नीति को खारिज की जायेगी और नये सिरे से 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीय नीति बनाई जायेगी। चुनावों में झामुमो को जीत मिली और उसने कांग्रेस और राजद के साथ मिलकर हेमंत सोरेन के नेतृत्व में मौजूदा सरकार बनाई। सरकार बनने के एक माह के अंदर ही कोविड की वजह से कठिन हालात पैदा हो गये। दो साल तक सरकार ने अपनी पूरी ऊर्जा कोविड से जूझने में लगाई। अब इस साल जब हालात सामान्य हुए तो हेमंत सोरेन के समर्थक, सरकार के कई मंत्री, विधायक और नेता वादे के मुताबिक 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीय नीति बनाने के लिए अपनी ही सरकार पर दबाव बनाने लगे। मंत्री जगरनाथ महतो, रामेश्वर उरांव, झामुमो विधायक लोबिन हेंब्रम, कांग्रेस विधायक बंधु तिर्की, नमन विक्सल कोंगाड़ी सहित कई नेताओं ने इसे लेकर लगातार बयानबाजियां कीं तो सियासी माहौल गरमाने लगा। झामुमो के पूर्व विधायक अमित महतो ने 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीय नीति घोषित न किये जाने के विरोध में पार्टी से इस्तीफा दे दिया। उधर कांग्रेस की पूर्व मंत्री गीताश्री उरांव ने भी सरकार पर झारखंडी जनभावनाओं का खयाल न रख पाने का आरोप लगाते हुए कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ विधायक लोबिन हेंब्रम ने एलान कर दिया है कि सरकार जब तक 1932 के खतियान की नीति नहीं लागू करती, वह अपने घर नहीं जायेंगे।

 उन्होंने आगामी 5 अप्रैल से पूरे झारखंड में इसे लेकर अभियान चलाने की घोषणा की है। इधर अलग-अलग झारखंडी आदिवासी-मूलवासी संगठन भी आंदोलित हो उठे हैं। बोकारो, धनबाद, रांची सहित कई जगहों पर 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीय नीति की मांग को लेकर फरवरी और मार्च महीने में कई जगहों पर धरना, प्रदर्शन, सभाएं हुईं। कहीं पुतले फूंके गये, कहीं मानव श्रृंखलाएं बनाई गईं। बीते 7 मार्च को आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) पार्टी ने इस मांग को लेकर विधानसभा के घेराव का एलान किया था, लेकिन इसके पहले ही आजसू के कई प्रमुख नेताओं पर पुलिस ने पहरा बिठा दिया। सात मार्च को रांची पहुंचने की कोशिश कर रहे आजसू पार्टी के हजारों कार्यकतार्ओं को शहर की बाहरी सीमाओं पर रोक दिया गया। आदिवासी-मूलवासी संगठनों ने 20 मार्च को बोकारो से धनबाद के बीच 45 किलोमीटर की दूरी तक रन फॉर खतियान का आयोजन किया, जिसमें हजारों लोगों ने भाग लिया। इन्हीं संगठनों के आह्वान पर 21 मार्च को भी विधानसभा का घेराव करने हजारों युवा रांची पहुंचे। इन प्रदर्शनकारियों को भी शहर के बाहर रोक दिया गया। इधर विधानसभा में कई विधायकों ने स्थानीय नीति का मुद्दा उठाया तो आखिरकार मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसपर जवाब दिया। उन्होंने 24 मार्च को विधानसभा में कहा कि 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि बाबूलाल मरांडी की सरकार ने ऐसी प़ॉलिसी लागू की थी तो हाईकोर्ट ने उसे रद्द कर दिया था। 25 मार्च को बजट सत्र के आखिरी दिन भी मुख्यमंत्री ने इसपर सरकार का स्टैंड रखा। बकौल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, "सरकार झारखंडी जनभावनाओं का ख्याल रखते हुए स्थानीय नीति तय करेगी। विपक्ष चाहता है कि राज्य में इस मुद्दे पर आग लग जाये। आग लगाना आसान है, बुझाना कठिन। हम ऐसा नहीं होने देंगे। सरकार इस मुद्दे पर व्यापक सहमति बनाते हुए आगे बढ़ेगी।"बहरहाल, डोमिसाइल का सवाल अपनी जगह पर बरकरार है। इस मुद्दे पर न तो सियासी बयानबाजियां थमती दिख रही हैं न आंदोलनों का सिलसिला।

 

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