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पटना पुस्तक मेला बना 'सांस्कृतिक महाकुंभ'

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पटना (बिहार) , 12 Feb 2017

बिहार की राजधानी के ऐतिहासिक गांधी मैदान में चल रहे 11 दिनों के पुस्तक मेले ने अब राज्य के लिए 'सांस्कृतिक महाकुंभ' का रूप ले लिया है। हर साल लगने वाले इस पुस्तक मेले का गौरवशाली इतिहास रहा है। सेंटर फॉर रीडरशिप डेवलपमेंट की ओर से आयोजित 23वां पटना पुस्तक मेला चार फरवरी से शुरू हुआ था और 14 फरवरी तक चलेगा।पेशे से पत्रकार और साहित्य में रुचि रखने वाले अनंत विजय कहते हैं, "पटना पुस्तक मेले के आयोजन में बाधाएं भी आती रही हैं। वर्ष 2000 में आयोजकों को स्थान बदलने पर मजबूर होना पड़ा था, और उसी समय यह पुस्तक मेला सांस्कृतिक आंदोलन बन गया था। अब तो यह सांस्कृतिक महाकुंभ बन गया है।" उन्होंने दावा किया कि पूर्वी भारत में कोलकाता में लगने वाले पुस्तक मेले के बाद पटना पुस्तक मेले का ही स्थान है। यह प्रारंभ से ही सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए बेहतर मंच साबित होता रहा है। वह कहते हैं, "बिहार के बारे में मान्यता है कि वहां सबसे ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं बिकती हैं। लोग सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक रूप से जागरूक हैं। यहां के लोगों में पढ़ने की लालसा है।" 

साठ के दशक में ही पटना में पहली बार एक पुस्तक प्रदर्शनी लगी थी। उसके बाद रुक-रुक कर लंबे-लंबे अंतराल के बाद पटना में पुस्तक मेले का आयोजन होता रहा। कभी केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने तो कभी नेशनल बुक ट्रस्ट ने तो कभी पुस्तक व्यवसायी संघ ने पटना में पुस्तक मेले का आयोजन किया। हर बार बिहार की जनता ने अपने उत्साह से आयोजकों को फिर से पुस्तक मेला आयोजित करने के लिए बाध्य किया। फिर भी निरंतरता नहीं बन पाई थी। अस्सी के दशक में इस बात की जरूरत महसूस की गई कि कोई एक संगठन नियमित तौर पर पटना में पुस्तक मेले का आयोजन करे, तब पटना पुस्तक मेला लगने की शुरुआत वर्ष 1985 में हुई थी। इसके बाद दूसरा पुस्तक मेला तीन वर्ष बाद वर्ष 1988 में आयोजित किया गया। इसके बाद प्रत्येक दूसरे वर्ष पुस्तक मेले का आयोजन होता रहा। वर्ष 2000 से पुस्तक मेले का प्रत्येक वर्ष आयोजन होने लगा। राज्य सरकार के निवेदन पर वर्ष 2013 में मार्च और नवंबर में यानी दो बार पुस्तक मेले का आयोजन किया गया। सांस्कृतिक कर्मी अनीश अंकुर मानते हैं कि पटना पुस्तक मेले में सभी सांस्कृतिक धाराओं का संगम होता है। यहां अगर साहित्यकारों और पुस्तक प्रेमियों के लिए पुस्तक की दुनिया सजती है, तो रंगकर्मियों को नाट्य मंच भी प्राप्त होता है। 

इस पुस्तक मेले में न केवल पुस्तकों की बिक्री होती है, बल्कि स्थानीय साहित्यकारों और रंगकर्मियों को यह मेला एक मंच भी प्रदान करता है।प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी वर्षो पहले दिल्ली से आकर पटना पुस्तक मेले में शामिल हुए थे। यहां के पाठकों के उत्साह को देखते हुए उन्होंने कहा था, "अगर देश की कोई संस्कारधानी है तो बेशक वह बिहार की राजधानी पटना होनी चाहिए।" वैसे, यहां के लोगों को इस बात का मलाल है कि इस मेले को अंतर्राष्ट्रीय रूप देने के लिए चर्चा तो कई वर्षो से हो रही है, लेकिन अब तक यह योजना सरजमीं पर नहीं उतर सकी है। वैसे, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए कहा है कि पटना पुस्तक मेला के 25वें संस्करण का आयोजन बड़े पैमाने पर होगा। साहित्यकार नवेंदु कहते हैं, "पुस्तक मेले से स्थानीय लेखकों की सृजनशीलता को गति मिलती है। जो किताबें दुकानों और पुस्तकालयों में नहीं मिल पातीं, वे पुस्तक मेले में आसानी से मिल जाती हैं।" वह कहते हैं कि बिहार को पाठकों के मामले में 'सजग प्रदेश' माना जाता है। पुस्तक मेला इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। इस पुस्तक मेले की स्वीकार्यता केवल लेखकों और प्रकाशकों के बीच ही नहीं है। छात्र, बुद्धिजीवी और शिक्षकों के लिए भी यह मेला अहम मंच साबित हुआ है। 

 

Tags: BOOK

 

 

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