साठ साल में प्रत्याशियों की बढ़ती भीड़ इस बात के संकेत हैं कि उत्तर प्रदेश के लोगों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ती जा रही है। देश की पहली लोकसभा के गठन के लिए जब चुनाव हुए, तब उत्तर प्रदेश की 69 साटों पर 364 प्रत्याशी मैदान में थे। यानी एक सीट पर औसत पांच प्रत्याशी, लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा के चुनावी संघर्ष में एक सीट पर औसत 17 प्रत्याशी मैदान में उतरे। वर्ष 1951 में पूरे प्रदेश में केवल दो सीटें ऐसी थीं, जहां 10 से अधिक प्रत्याशी मैदान में थे और 2009 में एक सीट पर अधिकतम प्रत्याशियों की संख्या 41 पहुंच गई।
वर्ष 1957 में हुए चुनाव में प्रदेश की सीटों पर 292 प्रत्याशी, 1962 के चुनाव में 443, 1967 में 507, 1971 में 543 और 1977 में 443 प्रत्याशी चुनाव मैदान में भाग्य आजमाने उतरे। 1977 में कांग्रेस की नीतियों और आपातकाल के विरोध में विपक्षी दल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में लामबंद हुए और देश की जनता ने जनता पार्टी के हाथ में सत्ता सौंप दी।यह प्रयोग ज्यादा चल नहीं पाया, क्योंकि एक साथ आए विपक्षी दलों के बड़े नेताओं और क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाएं सिर उठाने लगीं। नतीजतन, देश को 1980 में मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा। इस चुनाव से दलों का परिदृश्य बदला, जहां इसके पहले तक कांग्रेस, जनता पार्टी और वामदल ही संघर्ष में दिखते थे, इस चुनाव के बाद दलों की संख्या बढ़ गई। जनता पार्टी और कांग्रेस बंट गई।
उत्तर प्रदेश और बिहार में इसका असर देखने को मिला। 1980 के लोकसभा चुनाव में उप्र में प्रत्याशियों का आंकड़ा 1005 पहुंच गया। बड़े दलों ने अपने प्रत्याशी उतारे तो मुकाबले में इनसे टूट कर छोटी-छोटी पार्टियां बनाने वाले नेता सामने आ गए। यही नहीं, निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या भी बढ़ गई। वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में उतरे छह राष्ट्रीय दलों कांग्रेस (आई), भाजपा, कांग्रेस (एस), लोकदल, सीपीआई, सीपीएम उम्मीदवारों और निर्दलीयों की संख्या 1235 पहुंच गई। इस चुनाव में चली सहानुभूति लहर में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई और राजीव गांधी के नेतृत्व में सरकार बनी।राजीव गांधी सरकार में विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री थे। सरकार गठन के दो साल के अंदर बोफोर्स प्रकरण का तूफान उठा। तब वीपी सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी और जनता दल का गठन किया। उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ मुहिम छेड़ी और कांग्रेस के विपक्षियों को साथ लाने की कोशिश की। इसका असर यह रहा कि 1989 के चुनाव में प्रदेश की सीटों पर प्रत्याशियों की संख्या 1087 रही लेकिन आरक्षण मुद्दे पर छिड़े घमासान के बाद जनता दल में भी टूट हुई। यही वजह रही कि 1991 के लोस चुनाव में 1588 प्रत्याशी अपना भाग्य आजमाने उतरे। नेताओं की महत्वाकांक्षा के चलते दलों में टूट का सिलसिला जारी रहा।
राजनीतिक अस्थिरता के इस दौर में चुनाव मैदान में उतरने वालों के सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गये और जो नया रिकार्ड बना वो आजतक कायम है। 1996 में देश ही नहीं यूपी की सीटों पर भी जबरदस्त चुनावी घमासान देखने को मिला और रिकार्ड 3297 प्रत्याशी चुनाव लड़े। छोटी-छोटी अनेक पार्टियां अस्तित्व में आईं।जनता ने इस बार स्पष्ट जनादेश नहीं दिया। परिणाम यह रहा कि कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनी। राजनीतिक स्थिरता के इस दौर में 1998 और 1999 में दो चुनाव हुए। इन चुनावों में क्रमश: 1037 और 1208 प्रत्याशी मैदान में उतरे। क्षेत्रीय दलों के उदय और बड़ी पार्टियों की बार-बार की टूट का परिणाम जनता के सामने बढ़ते विकल्प के रूप में आया। 2004 और 2009 के चुनाव में क्रमश: 1138 और 1368 उम्मीदवार मैदान में उतरे।