'द कश्मीर फाइल्स' के कुछ डॉयलॉग हमें आत्मचिंतन के लिये मजबूर करते हैं। फिल्म का मुख्य किरदार, जो एक पत्रकार है, वह पुलिस के एक पूर्व शीर्ष अधिकारी को कहता है,''आपको पद्म श्री दिया गया इसीलिये आप चुप रहे।'' इस पर वह पूर्व अधिकारी पत्रकार की भूमिका निभाने वाले पात्र को जवाब देता है,'' जब पुलिस को किसी बड़े आतंकवादी या अपराधी को गिरफ्तार करना होता है तो तुम्हें पता है कि हम सबसे पहले हम यह पता करते हैं कि उसकी 'रखल'(फिल्म में इस्तेमाल शब्द) कौन है। क्या तुम जानते हो ये 'रखल' कौन होती है-ये मीडिया के लोग। मैं पुरानी दिल्ली के एक सिनेमाघर में अपनी किशोर उम्र की बेटी के साथ यह फिल्म देख रहा था। वह यह जवाब सुनते ही हंस देती है। मैं भी कोई आवाज करता हूं। तो क्या मुझे यह वक्तव्य पसंद आया? कोई व्यक्ति , जो पत्रकारिता से इसके उद्देश्य के कारण जुड़ा और वह भी उस समय जब यह फैशनेबल नहीं था। आपके पिता अपने सहकर्मियों और पड़ोसियों को यह गर्व से बता नहीं सकते थे कि उनका बड़ा बेटा पत्रकार है। पल्लवी जोशी इस फिल्म में एक बौद्धिक प्रोफेसर का किरदार निभा रही हैं। वह फिल्म में बहुत ही सुरूचि संपन्न हैं और अपने एक लाइन के डॉयलॉग्स को बहुत ही जोरदार तरीके से और सावधानी से बोलती हैं। उनका प्रभाव गहरा है। युवावर्ग उन्हें पसंद करता है। फिल्म में आखिरी में वह अपने असली इरादे बताती हुई कहती हैं कि उन्हें कथानक (नैरेटिव) का युद्ध जीतना है।
वह अपने इरादों को पूरा करने के लिये एक कश्मीरी पंडित का इस्तेमाल करती हैं। वह उसे बताती हैं कि हर कहानी में या हर चुनावी सफर में एक विलेन की जरूरत होती है और वह विलेन या तो राज्य होना चाहिये या भारत की सरकार। उस युवा व्यक्ति को यह पता चलता है कि प्रोफेसर एक तस्वीर में एक आतंकवादी के साथ हंसते हुये और उसका हाथ पकड़े हैं। यह तस्वीर आतंकवादी के पास पूरी इज्जत और प्यार के साथ संभालकर रखी हुई है। इस सीन से वाम-लिबरल लॉबी के ढकोसले का खुलासा होता है। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी समस्या है और इसी कारण से बॉलीवुड इसे एकमत होकर समर्थन नहीं कर पा रहा है। एक और वीडियो वायरल हुआ जो फिल्मों में निभाये गये राधिका मेनन के किरदार और असली जिंदगी की मिस मेनन के बीच की समानताओं को दिखा रहा है। कुछ लोग इसे प्रोपेगेंडा कहेंगे। आपको वह ब्लॉकबस्टर फिल्म 'दीवार' तो याद होगी, जिसमें अमिताभ बच्चन भगवान शिव से कहते हैं,' खुश तो बहुत होगे'। हिंदु सिनेप्रेमी अक्सर यह कहते हैं कि यह सीन सिर्फ मंदिर में ही फिल्माया जाना संभव था। कश्मीर फाइल्स में ऐसे ही कुछ और 'वनलाइनर 'हैं। क्या कश्मीरी पंडितों को अपने घर जाने का मौका मिलेगा ? क्या यही न्याय है? अभी तक इस तरह के सवालों को पूछने से बचा जाता रहा है। फिल्म में सांस्कृतिक नरसंहार और प्रशासनिक नरसंहार की बात हुई है लेकिन इस तरह के कथित सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील जगहों पर पुलिस कैसे बर्ताव करती है।
कश्मीरी पंडितों का पलायन कहानी का बस एक हिस्सा है। शायद कोई ऐसा दिन आयेगा जब लोगों में इस तरह की फिल्म बनाने की हिम्मत आयेगी और वे इस तरह के नरसंहारों पर भले ही वे कितने भी छोटे स्तर पर क्यों न हुये हों, फिल्में बना पायेंगे। मेरे प्यारे उत्तर-पूर्वी भारत के बारे में क्या? क्या वहां चीजें अच्छी हैं या 'बेहतर' हैं? 1980 के दशक में या 1990 के दशक की शुरूआत में जनसंख्या-विभाजन क्या था और अब क्या है? 'हर्ड सिंड्रोम' अभी भी एक बीमारी क्यों है? कोहिमा, लुंगलेई या शिलॉंग में पढ़ने वाले एक युवक को या तो दिल्ली में या मुंबई में या यहां तक कि सिलीगुड़ी जैसे शहर में क्यों बसना पड़ता है? क्या यह सिर्फ करियर के कारण हो रहा है? फिल्म के नायक के लिये कश्मीर उसकी मां है क्योंकि वह वहीं पैदा हुआ था। दर्शकों के बारे में क्या? फिल्म के अंत में, मुख्य नायक कहता है, क्या है आपका मानवतावाद ? शायद 2022 में भी यह एक गलत सवाल है। संकीर्णता एक रोग है। संकीर्णता नाम के इस खतरनाक बाघ पर सवार होकर कुछ राज्य नफरत, हिंसा और उग्रवाद की राजनीति में चले गये हैं। कहीं-कहीं यह कड़वाहट चरम पर पहुंच गयी है।
1990 के दशक के मध्य में हुआ नागा-कुकी संघर्ष अब नागालैंड और मणिपुर की भयानक लेकिन पौराणिक कथाओं का हिस्सा हैं। वै नौपांग यानी 'बाहरी' शब्द मिजोरम में एक बुरा शब्द है। स्थानीय लोगों का कहना है कि राज्य के लोगों को विश्वास में लिये बिना 'मेघालय' नाम थोपा गया। मेघालय में, यहां तक कि कॉफी और चाय उद्योगों का भी शुरू में इस डर के कारण विरोध किया गया था कि अधिक से अधिक बाहरी लोग वहां आ जायेंगे। शिलांॅग के लोगों ने भारत के प्रमुख शहरों में बसने के लिये अपनी संपत्तियां बेच दीं। मेरे एक दोस्त ने हाल ही में दिल्ली में अपनी माँ को खो दिया। उन्होंने कहा कि उनकी मां की आखिरी इच्छा था कि वह वापस जायें और जेल रोड स्थित अपने आवास में रहें लेकिन उनकी यह इच्छा कभी पूरी नहीं हुई। उत्तर-पूर्व के अधिकांश लोगों की तरह, मेरा भी मानना है कि नयी दिल्ली में मामले को गलत तरीके से सुलझाने की कोशिश की गयी। उत्तर-पूर्व को अक्सर अलग-थलग महसूस कराया गया है, जैसे वह भारत का एक अवांछित हिस्सा है। दिल्ली में एक लॉबी मौजूद थी - नेता, बाबू और व्यवसायियों सहित कुछ अन्य लोग, जिन्होंने उत्तर-पूर्व को आग की लपटों में घिरा रहने दिया। ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के कार्यकर्ताओं को कभी 'गुंडा' कहा जाता था। ज्ञानी जैल सिंह, जब देश के गृह मंत्री थे, तब उन्होंने ने जनवरी 1980 में 'द इंडियन एक्सप्रेस' को दिये एक साक्षात्कार में कहा था, असम की समस्या कोई समस्या नहीं है। इंदिराजी की इच्छा ही मान्य होगी। अगर वह कल सूर्योदय से पहले चाहें, तो मैं आंदोलन को कुचलने के लिये पंजाब की जेलों को 10,000 असमियों से भर दूंगा। अन्य नेता भी अलग नहीं थे। मोरारजी देसाई और यहां तक कि चौधरी चरण सिंह ने भी नागा मुद्दे और असम आंदोलन पर गलत कदम उठाये थे। चीजें बदलती रहती हैं लेकिन फिर भी कुछ चीजें वही रहती हैं।