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अंग्रेजी सिखाने वाले संस्थानों को कर में छूट मिले : बीरबल झा

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5 Dariya News

नई दिल्ली , 31 Dec 2017

सर्वोच्च न्यायालय के सात दिसंबर, 2015 के फैसले ने देश में अंग्रेजी का महत्व बढ़ा दिया है। ऐसे में अंग्रेजी सिखाने वाले संस्थानों की भूमिका बढ़ गई है। जब भूमिका बढ़ी है, तो कर में छूट भी मिलनी चाहिए। यह कहना है ब्रिटिश लिंग्वा के प्रबंध निदेशक और लिंग्वा बुलेटिन के संपादक व समाजसेवी बीरबल झा का। उन्होंने कहा कि सरकार का दायित्व है कि जिस तरह अंग्रेजी स्कूलों को कर दरों में छूट दी जाती है उसी तरह अंग्रेजी सिखाने वाले संस्थानों को भी छूट मिले। लेखक बीरबल झा ने आईएएनएस से कहा, "वर्ष 2015 में एक याचिका दाखिल की गई थी जिसमें यह अनुरोध किया गया था कि अदालतों की कार्यवाही और फैसले को हिंदी व अन्य भाषाओं में उपलब्ध कराया जाए लेकिन शीर्ष अदालत ने उस फैसले को खारिज कर दिया और अंग्रेजी को अदालत की भाषा करार दिया। अदालत के इस फैसले ने समाज के गरीब वर्ग के लिए एक पैमाना तय कर दिया है कि उन्हें रोजगार, अदालतों और प्रख्यात संस्थानों में जाने के लिए अंग्रेजी पर अपनी पकड़ मजबूत करनी होगी।" उन्होंने कहा, "इस फैसले का मतलब है कि अगर किसी गरीब वर्ग के पीड़ित को न्याय चाहिए तो उसे अपनी बातों को अंग्रेजी में रखना पड़ेगा। उन्हें रोजगार चाहिए तो अंग्रेजी सीखनी होगी, मौजूदा परिप्रेक्ष्य में अगर आपको अंग्रेजी का ज्ञान नहीं है तो आपको कई दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है और अदालत के इस फैसले ने संपन्न वर्ग और वंचित वर्ग के बीच के अंतर को और बढ़ा दिया है।"

झा ने कहा, "इस फैसले को देश की सरकार को गंभीरता से लेना चाहिए, क्योंकि समाज दो वर्गो में बंटा हुआ है, एक संपन्न वर्ग और दूसरा वंचित वर्ग। संपन्न घरों के बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं तो वहीं वंचित वर्ग के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, जहां उन्हें दूसरे छात्रों के मुकाबले अंग्रेजी का उतना ज्ञान नहीं मिल पाता कि वह समाज में अन्य बच्चों की तरह अंग्रेजी बोल या पढ़ सकें। जिसके कारण वह अंग्रेजी संस्थानों की ओर रुख करते हैं लेकिन सरकार के कर नियमों के कारण उन्हें वहां भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। उन्हें अतिरिक्त कर के कारण संस्थान की बढ़ी फीस देने में परेशानी होती है। जिसके कारण यह अंतर और बढ़ता जा रहा है।"उन्होंने कहा, "सरकार को चाहिए कि वह इस अंतर को पाटने का काम करे। सरकार ऐसे संस्थानों को बढ़ावा दे जो इस क्षेत्र में वंचित वर्ग को आगे लाना चाहते हैं, उन्हें शिक्षित करना चाहते हैं ताकि वह भी समाज में दूसरे की तुलना में आत्मसमर्पित हो सकें।"उल्लेखनीय है कि सात दिसंबर, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी. एस. ठाकुर, न्यायमूर्ति ए. के. सीकरी और न्यायमूर्ति आर. भानुमती की पीठ ने एक आदेश पारित किया था, जिसमें हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में फैसले देने की मांग वाली याचिका को खारिज कर अंग्रेजी को अदालत की भाषा करार दिया था। डॉ. झा ने कहा, "शीर्ष अदालत का फैसला गरीबों के लिए यह मानक तय कर देगा कि अगर उन्हें अदालत से न्याय चाहिए, बड़ी कंपनियों में रोजगार चाहिए या फिर समाज में स्थान हासिल करने के लिए उन्हें पहले अंग्रेजी पर पकड़ हासिल करनी होगी, जो देश के लगभग ज्यादातर गरीब तबके के लिए असंभव है।" 

उन्होंने हिंदी के देश में गिरते स्तर पर भी चिंता जाहिर की और कहा कि इसकी वजह देश में त्रिभाषा पद्धति का इस्तेमाल सही ढंग से नहीं किया जाना है। उन्होंने कहा, "देश में 1600 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। देश के अन्य राज्यों में जैसे 10वीं और 12वीं कक्षाओं में अंग्रेजी विषय में पास करना अनिवार्य कर दिया गया है, ठीक उसी तरह अगर हिंदी के साथ किया जाता तो अदालत का ऐसा फैसला जनता के सामने आता ही नहीं।"डॉ. झा ने बेंगलुरू मेट्रो स्टेशन पर हिदी में लगी टिप्पणियों को हटाए जाने का हवाला देते हुए कहा, "देश में हिंदी को हीन भावना से देखा जाता है यह उसी का नतीजा है। उन्होंने कहा कि दक्षिण के राज्यों में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में कभी भी अनिवार्य नहीं किया गया। इसी कारण वहां के लोगों ने कभी हिंदी भाषा सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यही कारण है कि देश के अंदर अंग्रेजी भाषी लोगों को जितनी आसानी से नौकरियां मिल जाती हैं। उतनी आसानी से हिंदी भाषी लोगों को नहीं मिलतीं। तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजी लोगों को जोड़ने का कार्य कर चुकी है, जबकि हिंदी ऐसा करने में विफल रही है।"उन्होंने कहा, "भारत में अंग्रेजी को कुशलता के पैमाने के तौर पर देखा जाता है और कई कंपनियां अंग्रेजीभाषी लोगों को अच्छी तनख्वाह पर नौकरियां भी देती हैं। यह सुविधा हिंदीभाषी लोगों को नहीं मिलती।"डॉ. झा ने सरकार को सतर्क करते हुए कहा कि अगर सरकार इस मामले पर उचित कदम नहीं उठाती है तो आने वाले दिनों में यह अंतर और बढ़ता जाएगा, जिस कारण हिंदीभाषी लोग खुद को पिछड़ा हुआ महसूस करने लगेंगे। उन्होंने कहा कि सरकार को हिदी का स्तर बढ़ाने के लिए त्रिभाषा पद्धति का सही इस्तेमाल और गरीब तबके के लोगों को अंग्रेजी सिखाने वाले संस्थानों को कर की दरों में रियायत देनी चाहिए। 

 

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