प्रख्यात मनोचिकित्सक एवं कवि विनय कुमार के कविता संग्रह 'मॉल में कबूतर' में बाजारवादी संस्कृति की क्रूरता व कुरूपता को बेहद सरल भाषा में गहरे अर्थो के साथ न सिर्फ पेश किया गया है, बल्कि उस पर चोट भी किया गया है। बाजारवाद हर व्यक्ति के जीवन को अंदर तक प्रभावित कर रहा है। हमारे दैनिक जीवन पर बाजारवादी संस्कृति हावी हो गई है। हालांकि यह बहस का विषय है कि 'उदारीकरण' और 'बाजारवाद' ने कुछ खास वर्ग के लोगों का ही भला किया है और आम जनों के लिए यह एक विभीषिका बनकर आया है।विनय कुमार का यह कविता-संग्रह भी मानव जीवन का एक ऐसा ही दर्पण है, जिसमें आज के बाजार, खास तौर से 'मॉल संस्कृति' और उससे मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है।अपनी रचना 'मॉल में कबूतर' में बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं के रूप में खड़े मॉलों पर कटाक्ष करते हुए विनय लिखते हैं, "गए वे दिन/जब शोर के उठने से/पता चलता था बाजार किधर है/गए वे दिन/जब महक से पता चलता था/कि कहां क्या बिक रहा है/ गए वे दिन/जब अफरातफरी से पता चलता था/कि बाजार कितना गर्म है/अब तो/बड़ा से बड़ा बाजार/मीनारों के बीच एक और मीनार/अब तो/दुकानों में सजे फूल की महक/इतनी फरमाबरदार कि/दुकान से बाहर कदम तक नहीं रखती/अब तो/अरबों रुपये का कारोबार/हो जाता चुपचाप/नए आदाब ने कितना कुछ बदलकर रख दिया।"
बाजारवादी संस्कृति किस तरह लोगों तथा प्रकृति के आदिम संबंधों को नष्ट कर रहा है, इसे विनय ने बखूबी पहचाना है और लिखा है, "यूं ही नहीं बसा है चीजों का ये निजाम/मैं खुद ही उजड़ गया हूं करने में इंतजाम/बंदों से कहीं ज्यादा चीजों का रख-रखाव/साहब हों या कि बीवी चीजों के सब गुलाम।"विनय अपनी रचना में बेहद गंभीर मुद्दों को बेहद सहज व सरल भाषा में सामने रखते हैं, "मंजिलें कई हैं/कोई भी चढ़ सकता है/ कि देखने-दिखाने को है न/ लुभावना लोकतंत्र यहां भी/सबके लिए खुला/अब किसी की आंखें चौंधिया जाएं/तो जलवे का क्या कसूर/ इतना क्या कम है/कि घुसने के पैसे नहीं लगते/और न ही शरबत-ए-दीदार के/ वह लोकतंत्र/जिसके इलाके में बसा है यह मॉल/वहां कौन-सी अच्छी हालत है।"
अंत में, उपभोक्तावादी संस्कृति के शिकार लोगों पर उस कबूतर के रूप में गौर करते हैं, जो अनजाने में मॉल रूपी वैश्विक कुचक्र में फंस जाता है। कवि लिखते हैं, "बेचारा कबूतर सारा दिन उड़ता रहा/मगर उसे रास्ता न मिला/और रात के 11 बजे मॉल बंद हो गया/उसे भूख भी लग आई थी/उड़ते-उड़ते फूड कोर्ट पर जा रुका/जहां खाने की महक तो थी/मगर एक दाना एक रेशा तक नहीं/और वह समझ गया कि यह गरीबों का गांव है/वह निराश हो गया/मगर उसने तय किया/यहां से निकलना ही होगा/अभियान शुरू हो गया/कि अचानक उसे एक जगह से /एक आवाज सुनाई पड़ी/लगा कि हवा चल रही है तेज/और वह उड़ा/और एक चलते हुए पंखे से टकराकर गिरा/आखिरी बार/मॉल के मादक अंधेरे में/सुबह उसकी अंत्येष्टि हुई/यमराज की तरह बड़े और काले कूड़ेदान में!"मॉल की संस्कृति के निहितार्थो तथा मानवीय संवेदना के बदलते आयामों को चिह्न्ति करने में ये कविताएं सहज मालूम पड़ती हैं। 'मॉल में कबूतर' कविता संग्रह में पाठकों को नई अनुभूतियों व संवेदनाओं से भरने लायक प्रचुर सामग्री है।
पुस्तक : मॉल में कबूतर
लेखक : विनय कुमार
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन
मूल्य : 200 रुपये