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तीर्थस्थलों में शुमार है तांदी संगम

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लाहौल-स्पीति (कुल्लू) , 25 Jun 2016

लाहौल-स्पीति हिमाचल प्रदेश का दूसरा सीमांत जिला है। यह दक्षिण दिशा में कुल्लू और कांगड़ा से लगा हुआ है। इसके पूर्व में किन्नौर तथा उत्तर में लद्धाख क्षेत्र स्थित है और पश्चिम में यह चंबा से जुड़ा हुआ है। राज्य के अन्य भागों की भांति यह भी पर्वतीय क्षेत्र है। पूरा जिला ऊंची पहाड़ी चोटियों और घाटियों से आबाद है। इसके उत्तर में बारालाचा के दर्रे से ही विपरीत दिशाओं में चंद्र और भागा नदियां निकलती है और दोनों एक दूसरे के विपरीत दिशा में बहती हुई तांदी नामक स्थान पर मिलकर एक संगम का निर्माण करती है। आगे इन्हें चंद्रभागा या चिनाब नदी का नाम दिया जाता है।मानव संस्कृति के विकास में प्राचीन मंदिरों, धार्मिक स्थलों और नदी नालों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। चंद्र और भागा के संगम स्थल तांदी ने अपने आगोश में अनेक रहस्मयी लाहुली संस्कृति और प्राचीन इतिहास को छिपा कर रखा हैं। आदिकाल से ही इस स्थल को लाहुल के जनमानस के लिए अत्यन्त पवित्र और धार्मिक स्थल रहा है। इस स्थल के बारे में अनेक किवदंतियां हैं। इस संगम स्थल के इतिहास तथा आस-पास के क्षेत्रों एक नजर डाले तो ये अति प्राचीन काल से धार्मिक तीर्थ स्थान रहा है जिसका वर्णन हिन्दु धर्म तथा बोद्ध धर्मों के ग्रंथों में किया गया है। चिनाब नदी वैसे भी सभी धर्म अनुयायियों के लिए पवित्र नदी है। पुराणों के अनुसार इस नदी का नाम अस्किनी नदी था। यहां ये भी उल्लेख है कि भारत में सूर्य पूजा का प्रचार करने वाले कृष्ण के पुत्र साम्ब को पहली बार सूर्य प्रतिमा चंद्रभागा नदी में मिली थी, ऐसा अनेक पुराणों में वर्णित है। इस प्रतिमा की प्राप्ति से ज्ञात होता है कि हिमालय क्षेत्र में अन्य धर्मों के साथ सूर्य की भी उपासना की जाती थी और इस क्षेत्र में प्रचलित प्राचीन सूर्य पूजा पर भी प्रकाश पड़ता है। 

पांडवों के स्वर्गारोहण का रास्ता भी इस संगम से माना जाता है। यहां एक जनश्रुति है कि स्वर्गारोहण के दौरान द्रौपदी ने अपने प्राण इस स्थल पर त्यागे थे और उनका अन्तिम संस्कार भी संगम में ही किया गया था। इसे हिन्दु और बौद्ध दोनों ही समान रूप से पवित्र समझते हैं। दोनों धर्मों के लोग अपने मृतकों को अस्थ्यिों को यहीं विसर्जित करते हैं। अंतिम संस्कार के लिए स्थानीय ब्राह्मण यानि भाट और लामाओं का सहयोग प्राप्त किया जाता है। यहां  यह भी उल्लेख करना जरूरी है कि दाह संस्कार और कर्मकांडों के अवसर पर स्थानीय भाट अधिकतर अपने मंत्रोच्चारण में जरूरी है कि दाह संस्कार और अन्य कर्मकाण्डों के अवसर पर स्थानीय भाट अधिकतर अपने मन्त्रोच्चारण में पाण्डवों द्वारा किए गए धार्मिक कृत्यों का बखान भी करते है। संगम तट पर किए गए दाह संस्कार को पाण्डवों द्वारा किए गए धार्मिक कृत्यों का बखान भी करते है। संगम तट पर किए गए दाह संस्कार को सीधा स्वर्ग दायक समझा गया है। इस तट में पाण्डवों के दाह संस्कार से जुड़ने पर यह स्थान महा शमशान माना गया है। काशी, हरिद्वार तथा सरस्वती के संगम स्थल प्रयाग की तरह ही इस का महा शमशानों का महत्व प्राप्त है। स्थानीय तांत्रिकों और बौद्ध शास्त्रों में यह आठ महा शमशान में से एक माना गया है। लाहुली जनश्रुति और कई महान ऋषि मुनियों ने इस धार्मिक स्थल को हरिद्वार से अधिक पवित्र बताया गया कि इस संगम में 108 सोने की पोडियां है जो सीधा स्वर्ग के लिए मार्ग प्रशस्त करवाता है। इसके अतिरिक्त संगम के संबंधों में अनेक जन श्रुतियां तथा किवदंतियां है। वैसे तो चंद्र और भागा लाहुल की दो मुख्य नदियां है। इन दोनों नदियों के बारे में अनेक प्रकार की लोक कथाएं सुनने को मिलती है। लोक मान्यता है कि चन्द्रमा की बेटी का नाम था चंद्रा और भगवान सूर्य के पुत्र का नाम था भागा। चंद्र और भागा आपस में बेहद प्यार करते थे लेकिन ये दो आपस में बिछड़ गए औ इन दोनों का पुनः मिलन तांदी नाम स्थान पर हुआ। वैसे भी चिनाब नदी के साथ अनेक प्रेम गाथ्रााएं बाद में भी जुड़ती रही है। कुछ लोग लाहुल में जाति व्यवस्था की उत्पति भी इसी स्थल से मानते हैं। 

लाहुली संस्कृति सभ्यता और इतिहास के माध्यम से संगम की भूमि पर शोध करें तो अनेकों रहस्यमय तथ्य उजागर होते हैं। इस क्षेत्र में विभिन्न देवी देवताओं के धार्मिक स्थल है लेकिन संगम की अपनी एक अलग से पहचान है। संगम तट की चोटी पर गुरू घन्टाल का मंदिर स्थापित है जो प्राचीन काल में महाकाली देवी का मन्दिर था।  लाहौल घाटी में यह भी मान्यता है कि विभिन्न धार्मिक त्यौहारों एवं उत्सवों के दौरान उदयपुर मृकुला देवी रात्रि के समय तांदी संगम में स्नान करने आती है और वापिस जल मार्ग से अपने निवास स्थान को वापिस होती है। लोक मान्यता है कि शिव और पार्वती का विवाह इस स्थान पर हुआ था। गुरू घन्टाल मन्दिर के सीधे ऊपर डिलबूरी शिखर है जिस की परिक्रमा करने से लोग अपने जीवन काल में पुण्य कमाते है और अनेक पापों से मुक्ति भी प्राप्त करते है। बौद्ध धर्म के तांत्रिक गुरू पदम सम्भव ने जब अपने तिब्बत प्रवास के दौरान इस स्थल पर तपस्या की उसके बाद इस मन्दिर का नाम गुरू घन्टाल पड़ा जिससे क्षेत्र में लाहुल धर्म का जन्म हुआ जो आज भी निरन्तर जारी है। घाटी के हिन्दुओं स्वांगला ब्राह्मणों तथा बौद्ध धर्म के लामाओं का धार्मिक कृत्यों का तन्त्र गुरू भाट द्वारा सम्पन्न किया जाता है।यहां ये भी लोक मान्यता है कि अति प्राचीन काल में स्वांगला ब्राह्मण एवं आर्य जाति के लोग तांदी में अपने यजमानों के मृत पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए आया करते थे। उस समय रोहतांग दर्रा पार करना सुगम नही था। अतः ब्राह्मण अपनी दिव्य शक्ति से उड़कर तांदी पहुंचते थे। अगर यहां ब्राह्मणों के श्राद्ध देने की बात कहीं सत्य प्रतीत होती है कि इसी तट के दूसरे किनारे पर गौशाल गांव है।        

इस गांव में प्राचीन काल से स्वांगला ब्राह्मण भाट परिवार रहता था। जो संगम में अस्थि विसर्जन कार्य तथा अंतिम संस्कार जैसे कार्यों में यजमानों का सहयोग करते थे। यह ब्राह्मण परिवार महाकाली के उपासक है। लेकिन क्षेत्र में अन्य धर्मों के प्रभाव में आने से लोगों ने स्थानीय धर्म को छोड़कर दूसरे धर्मों के अनुयायी बन गए। समय के साथ-साथ ब्राह्मण परिवार को गौशाल गांव छोड़ कर जुड़ा तथा किरतिंग गांव में जाकर बस गये तथा ब्राहण आज भी अपने यजमानों के लिए धार्मिक कृत्य कर रहे हैं। गुरू घन्टाल में स्थित महाकाली देवी ब्राह्मणों की कुल देवी है। देवी के वाहक को दो काले भूरे रंग के कुत्तों को माना जाता है। ब्राह्मणों के स्थानांतरण, धर्म परिवर्तन तथा अन्य धर्म के प्रभाव में आने से इस तट की आस्था में कमी आ गई है और लोग भी इसके महत्व को कम आंकने लगे और लोगों ने प्रवाह के लिए हरिद्वार की और रूख किया। लाहुल में आज भी यह मान्यता है कि जिस व्यक्ति का दाह संस्कार संगम में किया जाता हैं उसे सीधे स्वर्ग मिलता है। यहां एक जनश्रुति है कि स्वांगला समुदाय के लोग मृत के अस्थियों को मनुष्य का आकार देकर घोड़े के ऊपर रखकर अपने कुल पुरोहित भाट के साथ संगम में प्रवाह करने के लिए आते थे। 

इसी प्रकार बौद्ध धर्म के लोग भी अस्थि को मनुष्य का आकार देकर पीठ में उठा कर यहां विसर्जन के लिए आते थे। अब लोगों ने लगभग इस प्रथा को छोड़ ही दिया है। स्वांगला लोगों के लिए संगम में अस्तु प्रवाह कराना एक आर्थिक बोझ भी था। इस सम्बन्ध में परिवार वालों को अस्थि में लगाए गए वेष-भूषा आभूषणों सहित घोड़े को कुल पुरोहित को दान करना पड़ता था, जोकि आम परिवार के वश में नहीं होता था। इस संदर्भ में कुछ बुजुर्ग बताते है कि गोहरमा गांव के ब्राह्मण परिवार जब अपने मृतक के अस्तु प्रवाह करने के लिए तट में आया तो उसने अपनी दिव्य शक्ति और मंत्रों से अपने आप को सवार घोड़े के ऊपर से आधा फुट उपर उठा लिया था क्योंकि अपने दिव्य शक्ति के माध्यम से आसमान में उड़ जाना चाहता था। ब्राह्मण को ऊपर उठते देखकर वाद्य यन्त्रों से जुड़े व्यक्ति ने उस की टांग खींच लिया जिसके कारण ब्राह्मणम आसमान में उड़ नहीं पाया। 

इस पवित्र संगम की महता तब और कम हुई जब धार्मिक गुरूओं के साथ-साथ स्थानीय लोगों ने तट पर आयोजित की जाने वाले यज्ञ, हवन को बंद कर दिया। होम/यज्ञ समारोह को पहले लाहुल के कई भागों में आयोजित किए जाते थे, लेकिन लोगों के दैनिक जीवन में बदलाव आने से लोगों ने धार्मिक कार्यों को छोड़ना ही उचित समझा। तांदी होम को लोगों ने लगभग आज से 85-90 वर्ष पूर्व बन्द कर दिया था। लेकिन कुछ बुजुर्ग बताते है कि इस यज्ञ में लाहुल घाट के 14 कोठी के लोग भाग लेने आते थे और संगम तट पर क्षेत्र की खुशहाली और समृद्धि के लिए पूर्ण अहाुतियां दी जाती थी। इस यज्ञ/ होम का शुभारम्भ जुण्डा ब्राह्मण के माध्यम से सम्पन्न किया जाता था जुण्डा के सभी भाटों सहित हिडिम्बा के गुर तथा मृकुला मंछिन का पुजारी और वाद्य यन्त्रों से जुड़े लोग जुण्डा से शोभा यात्रा/गुयूं निकालकर तांदी तट में यज्ञ का आयोजन कियाा करते थे। इस होम का आयोजन मध्य मई और जून मध्य से पूर्व किया जाता था। वर्तमान में तट पर एक छोटा सा शिव मंदिर, तुपचिलिंग में की आधुनिक सुविधाओं से लैस बौद्ध गोम्पा का निर्माण किया गया जबकि प्राचीन गुरू घन्टाल मंदिर जो ऊपर पहाड़ी चोटी पर स्थित है।

 

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