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जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के 66 वर्ष बाद, इस पर विवाद उठाने वालों को मुंहतोड़ जवाब-प्रो. भीमसिंह

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5 दरिया न्यूज

जम्मू-कश्मीर , 26 Oct 2013

जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक रूप से 66 वर्ष पहले भारत में विलय हुआ। अंग्रेजी संसद के कानून के मुताबिक सभी के सभी यानि 565 रियासती हुक्मरानों को भारत में या पाकिस्तान में विलय करने का पूरा-पूरा अधिकार दिया गया था। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह जनता का विश्वास लेकर आगे बढ़ना चाहते थे। एक तरफ कश्मीर घाटी के लोगों ने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व में श्री अली मोहम्मद जिन्ना की द्विराष्ट्र सिद्धांत को पूरी तरह नकार दिया था। श्री जिन्ना की सरकार ने महाराजा हरिसिंह की सरकार से एक-दूसरे पर युद्ध न करने की संधि पर भी 16 अगस्त, 1947 को हस्ताक्षर कर दिये थे। पाकिस्तान की मदद से हजारों हमलावरों ने जम्मू-कश्मीर पर 20 अक्टूबर, 1947 को आक्रमण कर दिया। 26 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरिसिंह विलयपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए जम्मू-कश्मीर की शीतकालीन राजधानी जम्मू पहुंचे। श्री वी.पी. मेनन विलयपत्र को लेकर रातोंरात दिल्ली पहुंचे और 27 अक्टूबर, 1947 को प्रातः भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड माउंटबेटन ने विलय को मंजूरी दे दी। त्रासदी यह है कि जम्मू-कश्मीर के लगभग 11000 सैनिक इस युद्ध में शहीद हो गये, जिनमें जम्मू-कश्मीर सेना के प्रमुख ब्रि. राजेन्द्रसिंह भी शामिल हैं। 27 अक्टूबर, 1947 को भारतीय सेना कश्मीर पहुंच गयी और तीन दिन में सभी आक्रमणकारियों को या तो ध्वंस कर दिया या खदेड़कर वापस पाकिस्तान भेज दिया। तत्कालीन भारतीय सेना के प्रमुख जनरल करियप्पा के मुताबिक यदि उन्हें आदेश मिलता तो वे एक सप्ताह में सारा अधिकृत जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के आधिपत्य से मुक्त करावा देते।  ऐसा क्यों नहंी हुआ, इसके बारे में भी इतिहासकारों को खोज करनी होगी। इतना ही नहीं मीरपुर और कोटली जो जम्मू प्रांत हिस्सा थे, उन पर पाकिस्तान ने 25 नवम्बर, 1947 यानि विलय के एक महीने बाद पूरा आधिपत्य जमा दिया। गिलगित और बल्तिस्तान जिसे आज के दिन पाकिस्तान ने अपना एक प्रांत घोषित करके पाकिस्तान में मदगम कर लिया है। यहां भी इतिहासकारों और राजनेताओं को इन प्रश्नों को उŸार देना होगा कि भारत में अधिकृत कश्मीर को पाकिस्तान से खाली क्यों नहीं करवाया? इसके अलावा जब हमारी सेनाएं जम्मू-कश्मीर पहुंच चुकी थी और जम्मू-कश्मीर का विलय भारत से हो चुका था तो मीरपुर, कोटली इत्यादि जिसे पाकिस्तान आज के दिन ‘आजाद कश्मीर‘ के नाम से पुकारता है। 25 नवम्बर, 1947 को पाकिस्तान के कब्जे में कैसे जाने दिया? ब्रि. घनसारासिंह, जो गिलगित-बल्तिस्तान के महाराजा हरिसिंह की ओर से नियुक्त किये हुए गवर्नर थे, उन्होंने अपनी गिलगित जेल डायरी में लिखा है कि वे पाकिस्तानी सेना ने नवम्बर के पहले सप्ताह में गिलगित पर अपना फौजी कब्जा जमा लिया और भारतीय वायु सेना आकाश से तमाशा देखती रही। इसका वर्णन इस लेखक की पुस्तक ‘दि ब्लडर्स एंड वे आउट‘ में संक्षिप्त में किया गया है। 

पाकिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नवाज शरीफ ने वाशिंगटन जाकर अमरीका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के सामने एक बार फिर कश्मीर विवाद को उछालने की कोशिश की है। जम्मू-कश्मीर की समस्या के दो पहलू हैं, जिन्हें जम्मू-कश्मीर के इतिहास के हर छात्र को समझना अत्यन्त आवश्यक है। पहला यह कि जम्मू-कश्मीर का विदेशी नीति से क्या सम्बंध रहा है या विदेश नीति पर जम्मू-कश्मीर की तथाकथित विवाद का क्या प्रभाव है और दूसरा जम्मू-कश्मीर की अंदरुनी व्यवस्था क्या है और क्षेत्रीय भेदभाव कैसे सुलझाया जा सकता है। जम्मू-कश्मीर के (भारत) तीन प्रधान क्षेत्र हैं, लद्दाख, कश्मीर घाटी और जम्मू प्रदेश। जम्मू प्रदेश और लद्दाख की जनता 66 वर्षों से न्याय और अधिकार की बात कर रही है। सरकार की ओर से हो रहे भेदभाव के खिलाफ आवाजें बुलंद हो रही हैं, यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में 25 वर्षों से विधानसभाओं का परिसीमन ही नहीं हुआ। जम्मू-कश्मीर के गुज्जर, बक्करवाल और गद्दी समुदाय, जिन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल है, उन्हें आज तक राजनीतिक आरक्षण दिया ही नहीं गया। सचिवालय सरकार के मंत्रियों और अफसरशाही की अय्याशी का एक साधन बना हुआ है। हर वर्ष 600 करोड़ रुपया खर्च होता है तथाकथित दरबार को जम्मू से श्रीनगर लेजाने और छः महीने के बाद वापस लौटाने के। लगभग 150 (एक सौ पच्चास) वर्ष पहले यह ‘दरबार मूब‘ की प्रथा महाराजा प्रतापसिंह के समय में शुरू हुई थी। आज दोनों प्रांतों में यानि कश्मीर और जम्मू में सचिवालय चलाने के लिए पूरा साजोसामान मौजूद है, परन्तु जम्मू-कश्मीर के लोगों की समस्या वैसे की वैसे ही चली आ रही है। यहां तक नए भर्ती सरकारी कर्मचारियों की पांच वर्ष के लिए वेतन भी महज 3500 रुपये कर दिया गया है और 25000 पुलिसकर्मी भी इसी वेतन पर काम कर रहे हैं। भ्रष्टाचार जम्मू-कश्मीर में जैसे वैध बन चुका हो। मानव अधिकार और सुरक्षा का कोई नाम तक नहीं, हजारों युवा और बच्चे जनसुरक्षा कानून के अन्तर्गत जेलों में सड़ रहे हैं, जैसे कि वकील, अपील या दलील की कोई गुजांईश ही नहीं। यह है आंतरिक सुरक्षा का एक दृश्य, जिसे सुलझाना अत्यंत आवश्यक है लोकतंत्रवाद की जड़ों को मजबूत करने के लिए। भेदभाव की तो जम्मू और लद्दाख में बाढ़ चल रही हो। यही कारण है कि कई युवाओं ने जम्मू-कश्मीर सरकार के खिलाफ संघर्ष करने की ठान ली है। इसका उपाय एक ही है कि धारा-370 का संशोधन करके जम्मू-कश्मीर को पुनर्गठित किया जाय, जिसमें लद्दाख, कश्मीर घाटी और जम्मू प्रदेश के लोगों को अपना-अपना प्रशासन और विधानसभा चलाने का मौका मिल सके। धारा-370 केवल महाराजा हरिसिंह को नियंत्रण में रखने का एक उपाय ढूंढा गया था, इसके साथ अस्थायी प्रावधान इसलिए रखा गया था कि यह महाराजा हरिसिंह के रियासत के प्रमुख रहने तक ही लागू रहेगी। धारा-370 में जम्मू-कश्मीर सरकार की परिभाषा साफ शब्दों में कही गयी है कि जम्मू-कश्मीर की वह सरकार जो महाराजा हरिसिंह की अध्यक्षता में बनायी गयी है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को इस सरकार में मुख्य भूमिका देना चाहते थे, क्योंकि नेहरू जी के कहने पर ही महाराजा हरिसिंह ने शेख अब्दुल्ला को 5 मार्च, 1948 को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त किया था और शेख अब्दुल्ला तथा उनकी नेशनल कांफ्रेंस को खुश रखने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने महाराजा हरिसिंह को 20 जून, 1949 को जम्मू-कश्मीर छोड़कर बम्बई जाने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि शेख अब्दुल्ला का ख्वाब कुछ और था, उसे अमलीजामा पहनाने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू की चाहत पर महाराजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर से जलावतनी मंजूर की और युवराज कर्णसिंह जो उस समय केवल 17 वर्ष के थे, राजप्रमुख के रूप में जम्मू-कश्मीर का मुखिया नियुक्त किया। 

इतिहास ने शेख अब्दुल्ला और उनकी नेशनल कांफ्रेंस की पोल खोलकर यह साबित कर दिया कि वह भारत के विलय के पक्ष में नहीं थे, जब 20 अगस्त, 1952 को जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ने एक प्रस्ताव द्वारा महाराजा हरिसिंह की राजशाही को खत्म करने का आदेश दे दिया। हालांकि यह प्रस्ताव कानून के अन्तर्गत नहीं था, परन्तु इस प्रस्ताव का कोई भी विरोध सामने नहीं आया, परन्तु एक बात जरूर खुलकर सामने आयी कि महाराजा हरिसिंह की जम्मू-कश्मीर से राजशाही खत्म होने से जो भी शर्तें उन्होंने विलय के साथ जोड़ी थीं, वे भी तुरन्त खत्म हो गयीं। जब महाराजा हरिसिंह महाराजा ही नहीं रहे ना जम्मू-कश्मीर के प्रमुख रहे, तो उनकी तरफ से लगाये गयी शर्तें भी निराधार हो गयीं यानि धारा-370 सम्पूर्ण रूप से निराधार हो गयी। इन परिस्थितियों को मुझे भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के सम्मुख रखने का भी अवसर मिला। आज की परिस्थितियों के अनुसार केवल भारत की बड़े-बड़े राजनीतिक दल ही जिम्मेदार नहीं हैं? अगर सच कहूं तो हकीकत यह है कि पूरी संसद जिम्मेदार है, जिसने जम्मू-कश्मीर के विषय पर कोई भी कानून बनाने की जिम्मेदारी अपने हाथों से हटा दी है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि जम्मू-कश्मीर में रक्षा, विदेश मामले या किसी राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बंधी कानून को बनाना हो तो राष्ट्रपति एक अध्यादेश जारी करेंगे, परन्तु उस अध्यादेश को कानूनी दर्जा तभी मिलेगा जब राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर सरकार की मंजूरी हासिल कर लेंगे। दूसरी तरफ राष्ट्रपति धारा-370 के किसी भी अनुच्छेद का संशोधन कर सकते हैं, परन्तु शर्त यह है कि इसमें राष्ट्रपति को जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश हासिल करनी होगी। कितने शर्म की बात है कि उनके लिए जो इस बात पर यकीन करते हैं कि जम्मू-कश्मीर का अटूट अंग है कि दुम हाथी को हिलाने में सक्षम है, हाथी दुम को नहीं हिला सकती। इस बात को भी मद्देनजर रखना होगा कि राष्ट्रपति को उस जम्मू-कश्मीर सरकार से अनुमति लेनी होगी, जिसके प्रमुख महाराजा हरिसिंह हों। यह मामला अब हमारी सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी 3 दिसम्बर, 2013 को खुलकर आएगा, जिसमें जम्मू-कश्मीर सरकार ने धारा-370 का सहारा लेकर भेदभाव प्रचलित रखने का दावा किया है। इस आतंरिक अध्याय से उत्पन्न पीड़ा को भारत का संसद ही खत्म कर सकता है, वह तभी सम्भव है जब सांसदों को जम्मू-कश्मीर के इतिहास, राजनीतिक उथलपुथल और कानूनी दुविधाओं के बारे में ज्ञान होगा, इसके लिए कोई इंदिरा गांधी चाहिए, कोई अटल बिहारी वाजपेयी चाहिए, जो भी होगा उसे भारत के मिश्रित संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता का सम्पूर्ण ज्ञान हो।  

इतिहास ने एक नया अध्याय खोल दिया, जब भी बी.एन. मलिक, जो भारत के पहले आईबी निदेशक थे, उन्होंने अपनी पुस्तक, ‘माई डेज विद नेहरू‘ में शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों का वह पर्दाफाश कर दिया, जिसमें पाकिस्तान से लाखों रुपये शेख अब्दुल्ला इत्यादि को आ रहे थे, नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के तथाकथित 1952 समझौते और डिक्सन प्लान को फाड़ कर रद्दी की टोकरी में ही नहीं डाला, बल्कि युवराज कर्णसिंह को शेख अब्दुल्ला को तुरन्त बर्खास्त करके जेल में बंद करने और मुकदमा चलाने का आदेश दिया। आखिरकार शेख अब्दुल्ला ने 1975 को श्रीमती इंदिरा गांधी के सामने घुटने टेक दिये, उन्हें भी सŸाा चाहिए थी और अपने परिवार को पांव पर खड़े करने की इच्छा थी। जहां तक जम्मू-कश्मीर के अंदरुनी हालत का सम्बंध है, इसमें पुनर्गठन ही एकमात्र रास्ता है, तमाम खिŸाों के अवाम को न्याय व अधिकार बांटने का। जहां तक जम्मू-कश्मीर के अधिकृत भाग का सम्बंध है, 66 वर्षों से पाकिस्तान का 33,958 वर्गमील भूमि कब्जे में चली आ रही है, जिसमें 4,500 वर्गमील भूमि वह भी है, जिसे पाकिस्तान ने 1963 में भूट्टो-चाउ-एन-लाई समझौते के तहत काराकोरम हिस्से को चीन को 99 साल के लिए पट्टे पर दे दी, यह भी उस राष्ट्रसंघ प्रस्ताव का बहुत बड़ा उल्लंघन है, पाकिस्तान की ओर से, जिसकी रट नवाज शरीफ आज भी अमरीका में लगा रहे हैं। यह था 13 अगस्त, 1948 का राष्ट्रसंघ प्रस्ताव, जिसमें पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर की सारी की सारी अधिकृत भूमि को खाली करने को कहा गया था, जिसमें अधिकृत कश्मीर, गिलगित-बल्तिस्तान और चित्राल भी शामिल थे। पाकिस्तान ने गिलगित-बल्तिस्तान को पाकिस्तान का एक प्रांत घोषित करके राष्ट्रसंघ प्रस्ताव का एक और उल्लंघन किया था। पाकिस्तान आज भी राष्ट्रसंघ आदेशों का उल्लंघन कर रहा है, चाहे वह अन्तर्राष्ट्रीय सीमा हो या नियंत्रण रेखा। आज पाकिस्तान की आतंरिक कलह सेना और संसद के बीच में जोर पकड़ता जा रहा है, यही कारण है कि जनरल परवेज कयानी 23 नवम्बर, 2013 को रिटायर नहीं होना चाहते, उनके लिए एक ही रास्ता है जो जनरल मुशर्रफ ने 1999 करगिल युद्ध के बाद अपनाया था। इस जंग में पाकिस्तान में लोकतंत्रवाद का जीतना पूरे बरेसगीर के लिए अनिवार्य है। नियंत्रण रेखा के समाधान के लिए हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के सांसदों को पुरअमन निपटाना होगा, इसमें भारत का बहुत बड़ा योगदान है। भीमसिंह(लेखक मुख्य संरक्षक, नेशनल पैंथर्स पार्टी, सदस्य, राष्ट्रीय एकता परिषद,वरिष्ठ कार्यकारी सदस्य, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन हैं)

 

Tags: Prof Bhim Singh

 

 

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