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समूचे देश के गायक बनना चाहते थे मन्ना

मन्ना डे
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5 दरिया न्यूज

नई दिल्ली(आईएएनएस) , 24 Oct 2013

महान संगीतकार एवं गायक मन्ना डे नहीं रहे। उन्होंने अपने 70 साल के पाश्र्वगायन करियर में 3,500 से ज्यादा गाने गाए। उनकी खासियत थी कि उन्होंने कभी किसी गाने के प्रस्ताव को नहीं ठुकराया और गाने के हर मौके को सहर्ष स्वीकार किया।मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, हेमंत मुखर्जी और मुकेश जैसे गायकों के समकालीन रहते हुए भी मन्ना डे ने अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने फिल्मों में कोरस गाने से शुरुआत की, बाद में उन्होंने कई दर्दभरे, धार्मिक और शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों के अलावा हल्के-फुल्के मनोरंजक गीत भी गाए। मन्ना डे का जन्म एक मई 1919 को पूर्णचंद्र और महामाया डे की संतान के रूप में हुआ था। उनका वास्तविक नाम प्रबोध चंद्र डे था। गाने की प्रेरणा उन्हें अपने चाचा के.सी. डे से मिली थी और उन्हीं के संरक्षण में उन्होंने संगीत सीखना शुरू किया था। 

बहुत कम लोगों को पता है कि मशहूर संगीतकार सचिन देव बर्मन के. सी. डे के शिष्य थे और बचपन में मन्ना डे, एस.डी. बर्मन को अपना आदर्श मानते थे। खुले गले से गीत गाने की खासियत वाले मन्ना डे ने बाद में उस्ताद दाबिर खान से भी शास्त्रीय संगीत सीखा था, लेकिन संगीत का ककहरा उन्होंने अपने चाचा के.सी. डे से ही सीखा, जो कई भारतीय संगीत शैलियों के महारथी ज्ञाता थे।मन्ना डे 23 साल की उम्र में चाचा के.सी. डे के साथ कोलकाता से मुंबई आ गए। यहां शुरुआत में उन्होंने अपने चाचा के साथ काम किया। भाग्य की ही बात है कि के.सी. डे द्वारा संगीतकार शंकर राव व्यास का प्रस्ताव ठुकरा देने के बाद फिल्म 'रामराज्य' के गीत 'गई तू गई' (1943) में कोरस गाने का मौका मन्ना डे की झोली में गिरा और यहीं से उनकी फिल्मों में पाश्र्वगायन के सफर की शुरुआत हुई।इसके तुरंत बाद मन्ना डे को गायिका-अभिनेत्री सुरैया के साथ फिल्म 'तमन्ना' में युगल गीत गाने का मौका मिला। लेकिन पाश्र्वगायक के रूप में पहली स्वतंत्र पहचान उन्हें 1950 में आई फिल्म 'मशाल' में गीत 'ऊपर गगन विशाल' से मिली, जिसमें एस. डी. बर्मन ने संगीत दिया था।इसके बाद तो जैसे मन्ना डे की जिंदगी ही बदल गई। उनके करियर की नए सिरे से शुरुआत हुई और उस दौर के अग्रणी गायकों मोहम्म्द रफी और मुकेश के एकछत्र राज्य के बावजूद उन्होंने पाश्र्वगायन के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए।

पाश्र्वगायक के रूप में पहचान बनाने से पहले अपने संघर्ष के दिनों में मन्ना डे ने सचिन देव बर्मन और खेमचंद प्रकाश जैसे संगीतकारों के साथ बतौर सहायक संगीत निर्देशक काम किया और कई पौराणिक फिल्मों में संगीत भी दिया। 

बाद में एस.डी. बर्मन की सलाह से मन्ना डे ने पाश्र्वगायन पर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया और मशहूर संगीतकारों और अभिनेताओं के लिए फिल्मों में 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई', 'मधुबन में राधिका नाची रे' और 'लागा चुनरी में दाग' जैसे शास्त्रीय गीत गाए। मन्ना ने जितनी सहजता से शास्त्रीय संगीत वाले गीत फिल्मों में गाए, उतने ही खुले दिल से 'आजा सनम मधुर चांदनी में हम' और 'ये रात भीगी भीगी' जैसे रोमांटिक गीत भी गाए।फिल्म 'काबुलीवाला' में मन्ना डे का गाया गीत 'ऐ मेरे प्यारे वतन' फिल्म 'उपकार' का 'कसमें वादे प्यार वफा' और फिल्म 'सीमा' का गीत 'तू प्यार का सागर है' ने श्रोताओं को उनकी गायकी का कायल बना दिया। वहीं दूसरी तरफ 'एक चतुर नार' 'चुनरी संभाल गोरी' और 'ऐ मेरी जोहराजबीं' जैसे गीतों ने उन्हें युवा श्रोताओं का चहेता बना दिया और फिल्म 'जंजीर' का गीत 'यारी है ईमान मेरा' तो कोई भुलाए नहीं भूल सकता। 

मन्ना डे ने हिंदी, बांग्ला, पंजाबी, गुजराती, कन्नड़, मलयालम सहित 14 भाषाओं में गीत गाए। संगीत के क्षेत्र में उन्हें 1969 और 1971 में सर्वश्रेष्ठ गायक का राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता चुना गया तथा 2007 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म सम्मान दादा साहब फाल्के सम्मान दिया गया। भारत सरकार ने 1971 में उन्हें पद्मश्री और 2005 में पद्मभूषण सम्मान से नवाजा।प्रख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी कविता 'मधुशाला' को आवाज देने के लिए मन्ना डे को चुना था।मन्ना डे अपने चाचा के.सी. डे की तरह बहुमुखी, हर शैली में बेहतरीन और पूरे भारत देश के गायक बना चाहते थे तथा अपनी मेहनत व धर्य से उन्होंने यह कर दिखाया। एक बार एक साक्षात्कार में मन्ना डे ने कहा था, "मैं ऐसा इसलिए हूं, क्योंकि मैं जैसा हूं, वैसा ही हूं।"

 

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