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क्यों नहीं रुकती कन्या भ्रूण-हत्याएं?

गैरकानूनी और छुपे तौर पर कुछ इलाकों में तो आज भी कन्या भ्रूण हत्या हो रही है

5 दरिया न्यूज (प्रवीण कौशिक)

घरौण्डा 24-Apr-2014

हमारे देश की यह एक अजीब विडंबना है कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद समाज में कन्या-भ्रूण हत्या की घटनाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। दुर्भाग्य है कि संपन्न तबके में यह कुरीति ज्यादा है। स्त्री-पुरुष लिंगानुपात में कमी हमारे समाज के लिए कई खतरे पैदा कर सकती है। इससे सामाजिक अपराध तो बढ़ेंगे ही, महिलाओं पर होने वाले अत्याचार में भी वृद्धि हो सकती है। हाल ही में प्रकाशित केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वर्ष 2001 से 2005 के अंतराल में करीब 6,82,000 कन्या भ्रूण हत्याएं हुई हैं। इस लिहाज से देखें तो इन चार सालों में रोजाना 1800 से 1900 कन्याओं को जन्म लेने से पहले ही दफ्न कर दिया गया। समाज को रूढि़वादिता में जीने की सही तस्वीर दिखाने के लिए सीएसओ की यह रिपोर्ट पर्याप्त है।सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद समाज में कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। गैरकानूनी और छुपे तौर पर कुछ इलाकों में तो जिस तादाद में कन्या भ्रूण हत्या हो रही है, उस पर सीएसओ की रिपोर्ट केंद्र सरकार के दावों को सिरे से खारिज करती है। महिलाओं से जुड़ी समस्या पर काम करने वाली संस्था सेंटर फार सोशल रिसर्च इस समस्या से काफी चिंतित है। संस्था काफी समय से सरकार से इस बीमारी को रोकने के लिए हस्तक्षेप की माँग करती आ रही है। उधर सरकारी तर्क में कहा गया है कि 0.6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात सिर्फ कन्या भ्रूण के गर्भपात के कारण ही प्रभावित नहीं हुआ, बल्कि इसकी वजह कन्या मृत्यु दर का अधिक होना भी है। बच्चियों की देखभाल ठीक तरीके से न होने के कारण उनकी मृत्यु दर अधिक है। इसलिए जन्म के समय मृत्यु दर एक महत्वपूर्ण संकेतक है, जिस पर ध्यान देने की जरूरत है। 

1981 में 0.6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 962 था, जो 1991 में घटकर 945 हो गया और 2001 में यह 927 रह गया है। इसका श्रेय मुख्य तौर पर देश के कुछ भागों में हुई कन्या भ्रूण की हत्या को जाता है। उल्लेखनीय है कि 1995 में बने जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम नेटल डायग्नोस्टिक एक्ट 1995 के मुताबिक बच्चे के लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है। 

इसके बावजूद इसका उल्लंघन सबसे अधिक होता है। सरकार ने 2011 व 12 तक बच्चों का लिंग अनुपात 935 और 2016-17 तक इसे बढ़ा कर 950 करने का लक्ष्य रखा है। देश के 328 जिलों में बच्चों का लिंग अनुपात 950 से कम है। जाहिर है, हमारे देश में बेटे के मोह के चलते हर साल लाखों बच्चियों की इस दुनिया में आने से पहले ही हत्या कर दी जाती है और सिलसिला थमता दिखाई नहीं दे रहा है। समाज में लड़कियों की इतनी अवहेलना, इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। जिस देश में स्त्री के त्याग और ममता की दुहाई दी जाती हो, उसी देश में कन्या के आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी और शोक छा जाना बहुत बड़ी विडंबना है। हमारे समाज के लोगों में पुत्र की बढ़ती लालसा और लगातार घटता स्त्री-पुरुष अनुपात समाजशास्त्रियों, जनसंख्या विशेषज्ञों और योजनाकारों के लिए चिंता का विषय बन गया है। 

यूनिसेफ के अनुसार 10 प्रतिशत महिलाएं विश्व की जनसंख्या से लुप्त हो चुकी हैं, जो गहन चिंता का विषय है। स्त्रियों के इस विलोपन के पीछे कन्या भ्रूण हत्या ही मुख्य कारण है। संकीर्ण मानसिकता और समाज में कायम अंधविश्वास के कारण लोग बेटा और बेटी में भेद करते हैं। प्रचलित रीति-रिवाजों और सामाजिक व्यवस्था के कारण भी बेटा और बेटी के प्रति लोगों की सोच विकृत हुई है।समाज में ज्यादातर मां-बाप सोचते हैं कि बेटा तो जीवन भर उनके साथ रहेगा और बुढ़ापे में उनकी लाठी बनेगा। समाज में वंश परंपरा का पोषक लड़कों को ही माना जाता है। पुत्र कामना के चलते ही लोग अपने घर में बेटी के जन्म की कामना नहीं करते। बड़े शहरों के कुछ पढ़े-लिखे परिवारों में यह सोच थोड़ी बदली है, लेकिन गांव, देहात और छोटे शहरों में आज भी बेटियों को लेकर पुरानी सोच बरकरार है। आज भी शहरों के मुकाबले गांव में दकियानूसी विचारधारा वाले लोग बेटों को ही सबसे ज्यादा तव्वजो देते हैं, लेकिन करुणामयी मां का भी यह कर्तव्य है कि वह समाज के दबाव में आकर लड़की और लड़का में फर्क न करे। दोनों को समान स्नेह और प्यार दें। दोनों के विकास में बराबर दिलचस्पी लें। बालक-बालिका दोनों प्यार के बराबर अधिकारी हैं। इनके साथ किसी भी तरह का भेद करना सृष्टि के साथ खिलवाड़ होगा।कन्या-भ्रूण हत्या का असली कारण हमारी सामाजिक परंपरा और मान्यताएं हैं जो मूल रूप से महिलाओं के खिलाफ हैं। आज भी सामाजिक मान्यताओं में शायद ही कोई परिवर्तन आया हो। हां, इतना जरूर है कि यदि कोई लड़की अपनी मेहनत और प्रतिभा से कोई मुकाम हासिल कर लेती है तो हमारा समाज उसे स्वीकार कर लेता है। हमने प्रशासन के लिए तो लोकतांत्रिक संस्थाएं अपना ली हैं, लेकिन उसका समाज तक विस्तार होना बाकी है। यही कारण है कि तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद कन्या-भ्रूण हत्या पर रोक नहीं लग पा रही है।