5 Dariya News

भविष्य का सिसकता वर्तमान : बच्चों की बढ़ती दुर्दशा

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21-Sep-2017

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने देश के भविष्य का सपना बच्चों में देखा था और कहा था कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं, लेकिन दुख की बात ये है कि देश के ही नहीं बल्कि विश्वभर के इस भविष्य का वर्तमान सिसक-सिसक कर जी रहा है, जानलेवा हादसों से दो-चार होकर दम तोड़ रहा है। बच्चों के साथ हादसों के आंकड़े वर्तमान 2017 के दशक में जहां बढ़े हैं उसकी शुरूआत सन 1995 से मानी जा सकती है।  वैसे अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक मानवीय दुर्घटनाओं में मौत के शिकार बच्चों की संख्या सन् 1980 से 1990 तक जहां लगभग 5 से 8 प्रतिशत तक थी वहीं 2000 से इसमें प्रतिवर्ष 2-3 प्रतिशत का इजाफा होता रहा है। जबकि हादसों में शिकार अपंग बच्चों के आंकड़े तो इससे कहीं ज्यादा हैं। 

मानव क्रूरता 

अमानवीयता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि गत दिनों मप्र सरकार की उधारी के कारण कर्नाटक (बंगलुरू) सरकार ने मप्र के धार जिला क्षेत्र की एक मासूम बच्ची (उम्र लगभग 2-2।। वर्ष) का इलाज करने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि मप्र सरकार ने  कर्नाटक (बंगलुरू) सरकार की उधारी का पैसा नहीं चुकाया था। नतीजतन बच्ची इलाज के अभाव में मर गई। इस तरह की सरकारी लापरवाही का खामियाजा और भी घटनाओं में जनता ने भुगता होगा।इसी प्रकार गत दिनों इंदौर (म.प्र.) के बड़े अस्पताल एमवायएच में आक्सीजन की कमी से लगभग 20 से अधिक बच्चे मौत का शिकार हुए वहीं यूपी के फर्रुखाबाद में गत दिनों लगभग 49 बच्चों की मौत आक्सीजन और दवा की कमी के कारण हो गई।  इसी तरह का हादसा गोरखपुर में हुआ जिसमें लगभग 65 से अधिक बच्चे काल के ग्रास बन गए। इस हादसे को लेकर मानवता को परे धकेल कर राजनीति की जाने लगी। बच्चों की मौत पर नोबेल पुरस्कार विजेता ने इसे हत्या निरूपित किया। इस मामले की जांच में नौकरशाही की लापरवाही सामने तो आई मगर सजा के नाम पर बड़ों को बख्श दिया गया और मातहतों को शिकार बना दिया गया। लापरवाही से हुई बच्चों की मौत को सबसे पहले सामान्य कहा जाने लगा था, मगर मीडिया के इस मामले को उठाने पर जांच किए जाने और दोषियों को सजा देने पर मजबूर होना पड़ा।मानवीय क्रूरता के शिकार बच्चों को अब भविष्य में घर बैठकर पढ़ाई करना अच्छा लगेगा बजाए किसी निजी स्कूल में जाने के, क्योंकि गत दिनों रायन इंटरनेशनल स्कूल हरियाणा के एक मासूम  छात्र को इसी स्कूल के कंडक्टर ने अपनी हवस का शिकार बनाने में नाकाम होने पर मौत के घाट उतार दिया। इस हादसे ने न केवल पीड़ित माता पिता और परिवार को बल्कि इस हत्या की खबर पढ़ने, सुनने और देखने वाले हर मां-बाप को दहला दिया। स्कूल-कालेजों में हादसों के शिकार बच्चों की हत्या और रेप के मामले जहां सन 1980 से लेकर 1985 तक लगभग 5 से 7 प्रतिशत तक थे वहीं सन 1995 से सन 2010 तक ये संख्या लगभग 12 से 15 प्रतिशत हो गई और सन 2017 में यह संख्या लगभग 17 प्रतिशत तक जा पहुंची। 

घरेरू हिंसा के शिकार

बाहर ही नहीं घर में भी बच्चों को रिश्तेदारों का शिकार होना पड़ता है। बच्चियों के साथ ज्यादती की घटनाएं तो दिल दहला देती है। न केवल रिश्तेदार बल्कि बाप, चाचा, मामा,आदि-आदि द्वारा बच्चियों को रेप का शिकार बनाने की संख्या जहां सन 1970 के दशक में मात्र 1 से 3 ँप्रतिशत के लगभग थी, वहीं सन 1990 के दशक में यह संख्या लगभग 7 प्रतिशत के लगभग जा पहुंची और सन 2017 में यह संख्या लगभग 15 प्रतिशत तक आ गई। रेप के अलावा बच्चों के साथ अत्याचार करना, उन्हें जलाना, घायल करना आदि-इत्यादि की घटनाओं के आंकड़े सन 1990 से लेकर 2015 तक लगभग 20 से 22 प्रतिशत तक थे। 

गेम और धारावाहिक के शिकार 

सन 2017 में मोबाइल आदि पर ब्लू व्हेल नामक गेम आया है जिसने न केवल भारत के बल्कि विदेशों तक के बच्चों को नहीं बख्शा है और सितम्बर 2017 तक विश्वभर के विभिन्न आयु वर्ग के लगभग 160 से भी अधिक बच्चे इस गेम को खेलते हुए मौत का शिकार बन चुके हैं और ये सिलसिला अभी भी जारी है। इससे पहले हमारे देश में टीवी  चैनल पर धारावाहिक शक्तिमान का प्रसारण किया गया था जिसकी नकल करने पर हमारे देश में लगभग 50-80 बच्चे विभिन्न राज्यों में मौत का शिकार बने थे।बच्चे मानसिक रूप से जज्बाती होते हैं और यही कारण है कि जज्बात जुनून का रूप धारण करने पर उनका मस्तिष्क अच्छा-बुरा सोचने की बजाए कर गुजरने को प्रेरित करता है। मां-बाप की लापरवाही कही जाए या उनकी अंध आधुनिकता, मां-बाप बच्चों को वीडियो गेम या मोबाइल देने के बाद ये देखना भी गंवारा नहीं करते कि बच्चा उनका उपयोग किस प्रकार से कर रहा है। 

कुपोषण 

सरकार और राज्य सरकारों की तरफ से बच्चों के स्वास्थ्य के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन सरकारी स्वस्थ आहार का मजा नेता, अधिकारी, कर्मचारियों को मिल रहा है। बतौर दिखावा 20 से 30 प्रतिशत मात्रा में आहार जरूरतमंद कुपोषित बच्चों को मिल जाता है। गत सन 1990 से 2000 तक के समय में देशभर के विभिन्न राज्यों में कुपोषण पीड़ित बच्चों की संख्या लगभग 45 से 55 प्रतिशत थी जो सन 2016 तक लगभग 60 प्रतिशत तक जा पहुंचएी। स्वास्थ्य विभागों द्वारा कुपोषित बच्चों का सर्वे वगैरह भी किया जाता है और शिविर भी लगाए जाते हैं, लेकिन अज्ञानता और अशिक्षा की वजह से जिन लोगों लोगों तक योजनाओं का लाभ पहुंचना चाहिए वे इससे दूर ही होते हैं, क्योंकि जरूरतमंद लोगों तक बहुत कम खबर पहुंच पाती है।

अशिक्षित और कामगार बच्चे

शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए जारी की गई विभिन्न योजनाओं का लाभ गरीब बच्चों को मिल रहा है, ये सच है लेकिन यह भी सच है कि ये लाभ सम्पूर्ण आबादी का लगभग 25 से 35 प्रतिशत हिस्से को ही मिल रहा है। सरकार बच्चों को शिक्षित करना चाहती है, लेकिन निजी स्कूलों के कागजों पर इनकी संख्या तो अनुमान से ज्यादा मिलेगी, मगर गरीब बच्चों के मुखड़े बहुत कम देखने को मिलेंगे। देश के विभिन्न राज्यों में अशिक्षित बच्चों की संख्या जहां 2015 में लगभग 30 से 45 प्रतिशत थी, वहीं ये संख्या सितम्बर 2017 तक लगभग 55 प्रतिशत के करीब है। इसी प्रकार छोटे-छोटे कामों से लेकर भारी भरकम या जानलेवा कामों में भिड़े बच्चों की संख्या जहां सन 2000 में लगभग 20 प्रतिशत थी वहीं ये संख्या 2016 में लगभग 55 प्रतिशत पर आ पहुंची।देश के भविष्य के साथ हो रहे इस तरह के अन्याय के खिलाफ कहने को तो कई बार सामाजिक संस्थाओं से लेकर मीडिया आदि ने आवाज उठाई है, मगर मौसमी बहार के  जाने की तरह बाद में सब कुछ ठंडा पड़ जाता है। यही सिलसिला अनवरत रहा तो जिन बाल कांधों पर भविष्य में देश का बोझ आने वाला है, ये कांधे भविष्य से पहले ही यानी वर्तमान में ही मर जाएंगे! ढह जाएंगे!! टूट जाएंगे!!!