5 Dariya News

आदिवासियों की हो गई ब्राह्मण परिवार की बेटी

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डिंडौरी (छत्तीसगढ़) 07-Mar-2017

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के ब्राह्मण परिवार में जन्मीं शोभा तिवारी (46) की पहचान आज मध्यप्रदेश के डिंडौरी में बैगा आदिवासियों की बेटी के तौर पर है। वह यहां बीते डेढ़ दशक से ज्यादा समय से बैगा आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष कर रही हैं और इस जनजाति में अपने अधिकारों को लेकर जागृति लाने में काफी हद तक सफल भी हुई हैं। शोभा दो अलग-अलग विषयों में एमए हैं। उन्हें छत्तीसगढ़ में सरकारी नौकरी भी मिली, लेकिन उन्होंने नौकरी करना मुनासिब नहीं समझा, क्योंकि वे गांव में बसे लोगों की जिंदगी बदलना चाहती थीं। शोभा ने आईएएनएस से चर्चा करते हुए बताया कि वह भी आम लड़कियों की तरह हुआ करती थीं, मगर उनके मन में कुछ करने की ललक थी। इसी का नतीजा था कि वह वर्ष 1995 में रुकमणी सेवा संस्था के जरिए बस्तर के सुदूर इलाकों में आदिवासियों के बीच काम करने जा पहुंचीं।बकौल शोभा तिवारी, "मेरी जिंदगी में बड़ा बदलाव एकता परिषद के संस्थापक पी. वी. राजगोपाल की चंबल से रायगढ़ तक की पदयात्रा ने किया। 

उसके बाद मैं एकता परिषद से जुड़ी और डिंडौरी के 'बैगा चक' (बैगा आदिवासियों के गांव) में आ गई। वर्ष 2000 के बाद से मैं इसी इलाके में काम कर रही हूं।"शोभा की शादी परिजनों ने ब्राह्मण परिवार में की, मगर उनका अंदाज कुछ ऐसा था जो उनके ससुराल वालों और परिजनों को रास नहीं आया। परिजन चाहते थे कि वह आम बहुओं की तरह रहें, मगर वह तो आदिवासियों के लिए काम करना चाहती थीं। उनके पति का दो वर्ष पूर्व देहावसान हो चुका है और अब शोभा पूरी तरह डिंडौरी जिले के समनापुर में बस गई हैं।शोभा डिंडौरी में बैगा आदिवासियों के बीच बिताए अपने 17 वर्षो को याद करते हुए बताती हैं, "जब मैं इस इलाके में आई थी, तब मेरी बात को लोग ज्यादा महत्व नहीं देते थे, पुरुष तो फिर भी बात सुन लेते थे, मगर महिलाएं सामने आने को तैयार नहीं होती थीं।"

एक दिन ग्रामीणों के बीच चर्चा के दौरान उन्होंने भूख लगने का जिक्र किया तो महिलाओं ने उन्हें खाना खाने का आमंत्रण दे दिया, उस दिन शोभा को लगा कि ये महिलाएं उनसे जुड़ सकती हैं और अपने हक के लिए आगे आ सकती हैं, बस उन्हें किसी के साथ की जरूरत है।शोभा तिवारी बताती हैं कि बैगा महिलाएं अंदर से सख्त होती हैं, यह बात वह जान चुकी थीं। महिलाओं में अपनी जिंदगी को बदलने की ललक थी, पतियों की शराब की लत उन्हें परेशान किए थी, कई महिलाएं भी शराब पीती थीं, मगर बच्चों के भविष्य को लेकर हर महिला चिंतित थी। शोभा ने पहले महिलाओं के दिल की बात जानी और उसके बाद उन्हें अपने से जोड़ना शुरू किया। उन्होंने महिलाओं को उनके अधिकार बताए, बच्चों की शिक्षा को जरूरी बताया। महिलाओं को धीरे-धीरे जागृत किया और यह बताया कि 'जो जमीन सरकारी है, वह हमारी है।'

इसका नतीजा यह हुआ कि खाली पड़ी जमीन पर ग्रामीणों ने खेती शुरू की। वन विभाग ने धमकाया, मगर खेती छोड़ने कोई तैयार नहीं हुआ। बाद में जमीन के पट्टे मिल गए और आज कई बैगा परिवार जमीन के मालिक हैं। शोभा कहती हैं कि पेट खाली होगा तो पढ़ाई की बात नहीं की सकती, इसीलिए उन्होंने सबसे पहले उन्हें रोजगार मुहैया कराया, यानी खेती की जमीन का मालिक बनाया। प्रशासन और शासन के सहयोग से बड़ी संख्या में बैगा परिवार वर्तमान में खेती से अपना पेट भर रहे हैं और उनकी शराब की लत छूट रही है। बैगा आदिवासियों की स्थिति का जिक्र करते हुए शोभा बताती हैं कि इस वर्ग में जागृति आई है, वे अपना हक जानने लगे हैं, बच्चे पढ़ रहे हैं, कभी बंजर रही जमीन में खेती हो रही है, जीवन स्तर सुधर रहा है। पूरी जिंदगी इस वर्ग के बीच काम करने के मकसद से शोभा ने समनापुर में मकान भी बना लिया है। शोभा कहती हैं कि वह भले ही पैदा ब्राह्मण परिवार में पैदा हुई हों, मगर अब बैगाओं की हो गई हैं, उसकी हर सांस इसी वर्ग के लिए चलेगी। वह जीएंगी और मरेगी भी इसी वर्ग के लिए।