5 Dariya News

समाजवादी दंगल में मुलायम सिंह यादव का 'वनवास'

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01-Jan-2017

मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी नए साल में नए अवतार में उभरी है। सैफई परिवार में उत्तराधिकार को लेकर मचे दंगल में सीएम अखिलेश दबंग की भूमिका में उभरे हैं। प्रदेश की राजनीति में अहम स्थान रखने वाली समाजवादी पार्टी में एक पीढ़ी का अंत हो गया है। लखनऊ में आयोजित पार्टी अधिवेशन में चार प्रस्तावों के जरिए जो बात सामने आई है, उसमें पार्टी संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल सिंह के साथ करीबी ठाकुर अमर सिंह का पत्ता साफ हो गया है। संगठन, सत्ता और सरकार की सारी चाबियां रामगोपाल और अखिलेश के हाथ में चली गईं। यह दंगल भी इसी वजह से हो रहा था। सीएम अखिलेश को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पास किया गया, जबकि मुलामय सिंह यादव के हाथ से यह कमान छीन ली गई, उन्हें मार्गदर्शक की नई जिम्मेदारी दी गई है। जबकि अमर सिंह एवं चाचा शिवपाल सिंह का भी पत्ता साफ हो गया है। इस प्रस्ताव से अब बह पार्टी अध्यक्ष नहीं रहेंगे। सपा में सिर्फ बस सिर्फ अखिलेश की चलेगी। अधिकारों का विकेंद्रीकरण नहीं होगा। टिकट बंटवारे में भी कोई आड़े नहीं आएगा। परिवारवाद की इस जंग में सत्ता के केंद्रीय नियंत्रण के लिए यादव परिवार में जिस तरह की जंग देखने को मिली, वह किसी भी स्थिति में शुभ और दीर्घकालिक नहीं दिखती है। 

अखिलेश और रामगोपाल के लिए यह स्थिति तात्कालिक तौर पर भले शुभ और फायदेमंद हो लेकिन इस बदलाव की उम्र बेहद लंबी नहीं है, क्योंकि पार्टी के अधिकांश विधायकों का समर्थन अभी उन्हीं के पास है और चुनाव परिणाम तक रहेगा। इसकी मुख्य वजह है कि राज्य में चंद दिनों बाद आम चुनाव होने हैं। अभी विधायकों के पास सरकार और सत्ता की तागत और रुतबा है। दूसरी वजह, कोई भी विधायक यह नहीं चाहता है कि समाजवादी पार्टी इस वक्त पर बिखरे और टूटे। चुनाव के लिहाज से यह खतरनाक होगा। अगर ऐसा हुआ होता तो इसका नुकसान सभी को उठाना पड़ता। पार्टी के लोग ही एक दूसरे के आमने-सामने होते यह स्थिति दोनों के लिए बेहद कठिन होती, जिसका फायदा भाजपा और बसपा उठाती।लेकिन पार्टी जिस नए अवतार में उभरी है, फिलहाल चिंता की बात नहीं है। लेकिन चुनाव के बाद आए परिणामों पर पार्टी की स्थिति बदल सकती है। परिणाम अगर खराब रहा था पार्टी को टूटने से कोई नहीं बचा सकता। उस स्थिति में शिवपाल सिंह यादव एक नए अवतार में दिखेंगे और उनकी पूरी कोशिश होगी की पार्टी की कमान एक बार उनके हाथों में वापास आए। यह स्थिति अभी दिख रही है।

पार्टी के अधिवेशन में वह खुद नहीं गए और मुलायम सिंह को भी नहीं जाने दिया। दूसरी तरफ अधिवेशन को असंवैधानिक बता दिया गया। समाजवादी पार्टी मची इस सियासी सहमात में कभी चाचा तो कभी भतीजा का पलड़ा भारी पड़ा। लेकिन उपसंहार में चाचा बैकफुट पर चले गए उनका राजनीतिक अस्तित्व ही दांव पर लग गया। 

सीएम बेटे ने पिता पर खुद उनका ही दांव उन्हीं पर आजमा दिया। यूपी में समाजवादी पार्टी टूट से भले बच गई। लेकिन सत्ता के संघर्ष और घरेलू झगड़े में रिश्ते और संबंध हाशिए पर चले गए। समाजवादी विचारधारा ताश के पत्तों की माफिक बिखर गई। यह उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है। देश के राजनीतिक इतिहास की शायद यह सबसे बड़ी त्रासदी है, जहां सत्ता के केंद्रीयकरण पर पूरा परिवार और दल दांव पर लगा था। राजनीतिक पृष्ठभूमि और उत्तराधिकार के इतिहास में बाप का सिंहासन बेटा ही संभालता है, लेकिन यहां सिंहासन और सत्ता को लेकर बाप-बेटे में ही सहमात का खेल दिखा। इस लड़ाई में पिता हार गया, जबकि बेटा जीत गया। लोहिया के समाजवाद और उसके राजनीतिक विरासतदार मुलामय सिंह यादव के लिए यह सबसे बड़ा दुर्दीन साबित हुआ। मुलायम सिंह यादव देश की राजनीति में दिग्गज नेताओं में एक हैं। यूपी की जातीय राजनीति में उनका कोई जोड़ नहीं रहा। उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता से पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेता को सियासी मात दी थी। लेकिन परिवारवाद के चक्रव्यूह की लड़ाई में आज वह पराजित हो गए।

इस दौरान वह बेहद दुखी और आहत दिखे। लेकिन सिंहासन की जंग में अयोध्या नरेश महाराज दशरथ को भी इस गति को प्राप्त होना पड़ा था, फिर सैफई नरेश इससे कैसे अछूते रह सकते थे? कहा जाता है कि राजनीति और सत्ता में जंग में सब जायज है। हालांकि अखिलेश ने यह कहा है कि 'नेता जी का सम्मान करता हूं और करता रहूंगा। उनसे मेरा रिश्ता खत्म नहीं होगा।' अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी नहीं हथियानी चाहिए थी। आज वह जिस हैसियत में हैं, उसकी वजह पिता मुलायम सिंह यादव हैं। लेकिन नीतिगत आधार पर उन्होंने पिता के साथ न्याय नहीं किया। राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान उन्हें किसी भी स्थिति में नहीं संभालनी चाहिए थी। लेकिन अमर सिंह और चाचा शिवपाल सिंह को अपने रास्ते से खत्म करने के लिए उन्होंने जो कदम उठाया, वह उनके व्यक्तिगत हितों के लिए भले अच्छा हो, लेकिन संबंधों के लिहाज से यह कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। हालांकि कहा तो यह भी जा रहा है कि पूरे सियासी डांस में मुलायम सिंह की सारी नीति लागू की जा रही है। इसके पीछे अखिलेश को स्थापित करने की नीति बताई जा रही है। राज्य की कमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पास भले रही, लेकिन उसका रिमोट मुलायम सिंह यादव अपने पास रखना चाहते थे। पिता मुलायम सिंह यादव सीएम अखिलेश के साथ मुख्यमंत्री जैसा बरताव कभी नहीं किया। सार्वजनिक मंचों पर उन्हें नीचा दिखाने की हर वक्त कोशिश की। इतने बड़े राज्य के मुख्यमंत्री को उन्होंने बेटा माना और उसी जैसा व्यवहार किया। 

इसी का फायदा शिवपाल सिंह यादव ने उठाया। जबकि यह बात अखिलेश और रामगोपाल को हमेशा खटकती रही। यही नतीजा है कि लोहिया के विरासतदार मुलायम सिंह की हैसियत परिवारिक विवाद में सिर्फ एक मार्गदर्शक की रह गई। इस फैसले से सीएम और रामगोपाल बेहद खुश हैं। तीसरी सबसे बड़ी खुशी आजम खां को हो रही हैं, क्योंकि उन्होंने पारिवारिक झगड़े की आड़ में अपने राजनीतिक विरोधी अमर सिंह को किनारे लगाने में कामयाब रहे। यह उनकी सबसे बड़ी जीत है। अब वह मुलायम सिंह के साथ जंगल में जाने की बात कह रहे हैं, लेकिन वह साथ भी नहीं निभा पाएंगे, क्योंकि पार्टी में उन्हें बर्खास्तगी का प्रस्ताव पास किया गया। परिवारवाद की इस लड़ाई में समाजवाद की विरासत अखिलेश के हाथ में आ गई है। पूरे घटना क्रम में वह मजबूत शक्ति के रूप में उभरे हैं। लेकिन सत्ता के इस संघर्ष में समाजवाद का पराभव हो गया। विचारों और नीतियों पर परिवारवाद में रिश्ते-नाते सब खत्म हो गए। इस बीच कुछ बचा तो सिर्फ सत्ता और सिंहासन। अभी यह ड्रामा थमा नहीं है। शिवपाल बड़े भाई मुलायम के घर गए हैं। दोनों को रामगोपाल का पावर सेंटर बनना बेहद खटकता होगा। उस स्थिति में क्या समाजवादी पार्टी टूट जाएगी या मुलायम की नई रणनीति क्या होगी? क्योंकि वह कह चुके हैं कि 'मेरे बेटे पीछे रामगोपाल का हाथ है।'फिलहाल यह जंग कुछ दिनों के लिए भले थम गई हो, लेकिन सपा को टूटने से कोई बचा नहीं सकता। 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)