5 Dariya News

बंगाल के लोक रंगमंच 'जात्रा' पर भी नोटबंदी का ग्रहण

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कोलकाता 22-Dec-2016

पश्चिम बंगाल का सदियों पुराना बंगाली लोक थिएटर जात्रा गांवों में बेहद लोकप्रिय है, और जैसा कि नोटबंदी के बाद से देश का हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है उसी तरह इस पर भी नोटबंदी के बाद संकट के बादल छा गए हैं। उच्च मूल्य के नोटों पर प्रतिबंध के बाद आई एक अभूतपूर्व नकदी की कमी पर जात्रा आयोजकों और ओपेरा मालिकों ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा कि सर्दियों का मौसम हमारे व्यवसाय के लिहाज से बहुत ही अच्छा रहता था, लेकिन इस बार यह पीछे रह गया है। जात्रा पहले से ही पिछले एक दशक से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। इससे पहले जात्रा मंडली सालाना 250-300 दिन अपनी प्रस्तुति देती थी। अब एक सुपर हिट निर्माण मंडली भी मुश्किल से 100-120 दिन ही अपना कार्यक्रम कर पाती है। मंजूरी ओपेरा निदेशक-सह-निर्माता गौतम चक्रवर्ती ने बताया, "नकदी की कमी ने इस साल समस्या को और भी जटिल बना दिया है। लोगों के पास खुद के नियमित खर्च के लिए पैसे नहीं है, तो वह मनोरंजन पर कैसे खर्च कर सकते हैं।" 

जात्रा महाराष्ट्र के तमाशे और उत्तर प्रदेश की नौटंकी की तरह ही एक बंगाल का थिएटर है जो जोरदार संगीत, तेज प्रकाश और असाधारण रंगमंच की सामग्री के साथ दो से तीन घंटे का नाटक प्रस्तुत करता है।सर्दियों के दौरान ग्रामीण बंगाल में उत्सव की खुमारी छा जाती है और लोगों के पास मनोरंजन के लिए पैसे और फुर्सत भी होती है, ऐसे समय में जात्रा पाला (लोक थिएटर शो) का आयोजन किया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा आठ नवंबर को की गई नोटबंदी की घोषणा के बाद जात्रा पर भी संकट छा गया है।चक्रवर्ती ने आईएएनएस को बताया, "जात्रा में मुख्य अभिनेताओं को छोड़कर कलाकारों का भुगतान ज्यादातर नकद में किया जाता है। समूह के मालिक हर शो के बाद इतने सारे कलाकारों के लिए चेक जारी नहीं कर सकते। जो कलाकार दैनिक भुगतान पर काम करते हैं, उन्हें बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उन्हें 500 और 1,000 रुपये के पुराने के साथ भुगतान किया जा रहा है जो अब बेकार हैं।" 

मिदनापुर जिले में गुगाबानी क्लब के सचिव राजा दत्ता मायूसी जताते हैं कि उनके गांव में 40 साल में पहली बार जात्रा शो का आयोजन नहीं किया गया। उन्होंने कहा, "लोगों के पास कृषि श्रम रोजगार के लिए भी पैसा नहीं है। कई लोग खाली बैठे हैं। यहां हर जगह उदासी है। ऐसे परि²श्य में किसी का भी मूड टिकट खरीदने के लिए पैसा खर्च करने का नहीं है। इसलिए हमने इस साल किसी भी जात्रा समूह का आयोजन नहीं कर रहे हैं।" जात्रा की जड़ें 16वीं सदी के बंगाल से जुड़ी हुई हैं, जहां श्री चैतन्य भक्ति आंदोलन और संगीत नाटक के प्रसिद्ध स्वरूप कारया के उदय को देखा गया है। सदियों से जात्रा सफलतापूर्वक पौराणिक, ऐतिहासिक और नैतिक रूप से शिक्षाप्रद सामग्री बंगाल के निवासियों विशेष रूप से ग्रामीण दर्शकों तक पहुंचा रहा है। लेकिन बढ़ती उत्पादन लागत और टेलीविजन और सिनेमा जैसे मनोरंजन की आसान उपलब्धता के कारण इस शैली के दर्शकों की संख्या में लगातार गिरावट देखी जा रही है। 

पिछले सत्र तक सफलतापूर्वक मुनाफा कमाने वाले प्रबंधकों के लिए इस साल अच्छा सौदा प्राप्त करना मुश्किल हो गया है। इसके कारण कुछ आयोजकों ने कई प्रस्तुतियों का विचार छोड़ केवल ही प्रस्तुति करना बेहतर समझा है।आनंदलोक ओपरा प्रोडक्शन के प्रबंधक बापी सहा ने बताया, "मेरी कंपनी ने इस साल अलग-अलग स्वाद की दो प्रस्तुतियां तैयार की थीं, और पिछले साल हमने सफल कार्यक्रम भी दिया था। लेकिन अब हमने नकदी के संकट के बीच एक कार्यक्रम का विचार त्याग दिया है। मैंने पिछले साल 35 शो किए थे लेकिन इस साल मैं केवल अब तक नौ की व्यवस्था करने में कामयाब रहा हूं।"