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सामाजिक क्रांति का सूत्रधार भी बनी मनरेगा

5 Dariya News (राजीव रंजन तिवारी)

04-Feb-2016

बेशक एक दशक में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) ने जो किया है, वह बेहद उल्लेखनीय है। दो फरवरी, २०१६ को मनरेगा ने अपने दस साल पूरे किए। एक वर्ष पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस मनरेगा को कांग्रेस की विफलता का स्मारक बताते हुए लानत-मलानत की थी, अब उन्ही की सरकार वाया मनरेगा अपनी पीठ ठोक रही है। इन दस वर्षों में ३.१३ लाख करोड़ खर्च कर करोङों श्रमिक दिवसों का सृजन किया गया। यह अलग बात है कि इस दरम्यान भ्रष्टाचार की शिकायतें भी मिलती रहीं, फिर भी मनरेगा के कारण अनुसूचित जाति और जनजाति के श्रमिकों की संख्या में क्रमशः २० और १७ फीसद की वृद्धि दर्ज हुई। मनरेगा के तहत् ६५ फीसदी से ज्यादा काम कृषि और कृषि से जुङी गतिविधियों के रूप में हुआ। मनरेगा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, जिसने सामाजिक विन्यास में बदलाव की नींव रखी। इसके सामने मनरेगा का दस साला सफरनामा छोटा मालूम होता है। यह किसी ने नहीं सोचा होगा कि वर्ष २००६ में बंदरापल्ली गांव से मनरेगा की हुई शुरुआत एक दिन सामाजिक वर्ग क्रांति का सूत्रधार बन जाएगी? एक अधिनियम किसी की हाथ की लकीरें बदल सकता है, पूरे सामाजिक विन्यास को उलट सकता है, यह सच सोच से परे हो सकता है। किसने सोचा था कि मनरेगा के आने से शहरों में मजदूरी बढ़ेगी और मनरेगा में मिली रोजगार की गारंटी, खेतों में मजदूर मिलने की गारंटी छीन लेगी? हालांकि भारत सरकार इसे महज एक भ्रामक तथ्य बता रही है और संप्रग सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री रहे जयराम रमेश ने भी यही कहा, किंतु बदलता परिदृश्य यही है, खासकर उन इलाकों का, जहां खेती के लिए अभी पानी का कोई संकट नहीं है। यदि ग्रामीण मेहनतकशों की आर्थिक सबलता का दौर जारी रहा, तो एक दशक में मनरेगा, मज़दूर को मालिक बना देगा।

बताते हैं कि मनरेगा ने अंतिम जन के पक्ष में सकारात्मक सामाजिक-आर्थिक प्रभाव दिखाएं हैं। गांवों का समाज बदला है। भूदान आंदोलन जो नहीं कर सका, वह बिना भूदान ही मनरेगा कर रहा है, ये सच है। खेतों में मजदूर न मिलने का मतलब ये नहीं कि भारत के खेत अब बिना बोये-काटे रह जाएंगे। मतलब ये कि जो अबतक मजदूर बनकर खेतों में काम करता था, वह अब हिस्सेदार-किरायेदार बनकर खेती करना चाहता है। मनरेगा में भले ही वह अभी अपनी शर्तों पर काम न पाता हो, लेकिन खेत मालिक की शर्तों पर काम करने की बजाय, वह अब अपनी शर्तों पर और अपनी मनमाफिक खेती करना चाहता है। इसमें वह सफल भी है, क्योंकि भूमिधरों के पास मजदूरों का कोई विकल्प नहीं है, मजदूरों ने अपनी महत्ता पहचान ली है, उसके परिवार का हर सदस्य खेत में काम करता है और उसके लिए खेती मुनाफे का सौदा है। एक वजह यह भी है कि उसे किसी को मेहनताना नहीं देना होता। पट्टे की थोड़ी-बहुत जमीन भी उसके पास है। उसके पास जुताई के लिए बैल हैं। गोबर की खाद है। वह साग-भाजी जैसी नकदी फसल बोकर गांव के हाट में बेचने में शर्म नहीं करता। कुल मिलाकर वह सफल है। दरअसल, वह सामान्य मौसमी स्थिति में खेती में गंवाता नहीं, बल्कि कमाता है। अब उसके पास खेती के सिवा आय के और भी साधन हैं। वह अन्तोदय या बीपीएल कार्डधारक हैं। गरीबी रेखा से नीचे की योजनाएं, सिर्फ उसी के लिए हैं। दूसरों के खेतों में साल में दो बार कटिया-बिनिया से मिला अनाज उसके सालाना खर्च के लिए पर्याप्त होता है। वह कभी खाली नहीं बैठता। गांव में काम न हो, तो अब शहर में लोग उसके लिए पलक पांवड़े बिछाए बैठे रहते हैं। जबकि ये क्षमताएं सवर्ण खासकर ब्राह्मण-क्षत्रिय-भूमिहार जाति में नहीं हैं। 

भारत के ग्रामीण समाज में मनरेगा के दूरगामी परिणाम दिखने लगे हैं। अब खेती उसी की होगी, जो अपने हाथ से मेहनत करेगा। विकल्प के तौर पर खेती के आधुनिक औजार गांव में प्रवेश करेगें। छोटी काश्तकारी को पछाड़कर विदेशी तर्ज पर बड़ी फार्मिंग को आगे लाने की व्यावसायिक कोशिशें तेज होंगी। इससे पलायन का आंकड़ा फिलहाल कम नहीं होगा। पलायन करने वाला वर्ग बदलेगा। किसान जाति का पलायन बढ़ेगा। वे खेती से विमुख होंगी। नई पीढ़ी का पढ़ाई पर जोर बढ़ेगा। श्रमिक वर्ग के पलायन में कमी आएगी। श्रमिक वर्ग की समृद्धि बढ़ेगी। खेती पर उनका मालिकाना बढ़ेगा। किसान और श्रमिक जाति के बीच वर्ग संघर्ष की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इसलिए जीत श्रम की होगी। यकीनन इसके पीछे कारण यह भी होगा कि खेती में श्रम के विकल्प के रूप में आईं मशीनों की भी एक सीमा है। आजादी के बाद भारत के गांवों में सामाजिक बदलाव का यह दूसरा बड़ा दौर है। पहला दौर, मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने का परिणाम था। मंडल रिपोर्ट को लेकर देश में हुए बवाल ने समाज के मन पर गहरा प्रभाव डाला था। तत्कालीन विवाद ने कालांतर में भूमिधर जाति और आरक्षण की जद में आई कारीगर जाति के बीच दूरी बढ़ाई। इससे एक-दूसरे पर निर्भरता का पुराना ताना-बाना शिथिल हुआ। जाति व्यवस्था में नाई, लुहार, सुनार, बढ़ई, दर्जी, धोबी, कुम्हार, कंहार और चमार कभी भी भूमिधर जाति नहीं थीं। खेती या मजदूरी करना, इनका पेशा नहीं रहा। ये कारीगर जाति के तौर पर समाज का हिस्सा रही हैं। खेती करने वाली जाति ही इनकी काश्तकारी रही हैं। कारीगर जाति को उनकी कारीगरी के बदले भूमिधर खेती का उत्पाद देते थे। अनाज, फल, सब्जियां, भूसा, मट्ठा से लेकर पैसा व कपड़े तक। यह पाना उनका हक था। इस हकदारी की पूर्ति न करने के अमानवीय कृत्य भी होते रहे हैं, फिर भी इसे नकारा नहीं जा सकता कि एक-दूसरे पर आश्रित होने के कारण यह ताना-बाना लंबे समय तक समाज को एक प्रेम बंधन में गुंथे हुए था। समाज का हर काम साझे की पहिए पर चलता था। जातिगत कारीगरी व्यवस्था भले ही किसी को विकास की नई अवधारणा के खिलाफ लगती हो, किंतु सदियों से भारत के गांवों की स्वावलंबी व्यवस्था यही थी। 

इसी बीच एक दौर ऐसा भी आया, जब आरक्षण के विद्वेष में आकर कहीं कारीगरों ने जजमानों के यहां काम करने से इंकार किया, तो कहीं जजमानों ने परंपरागत साझे को चोट पहुंचाया। नतीजतन, कारीगरों ने बाजार व शहर का रुख किया। गांवों में कारीगरी परंपरागत जाति की हद से बाहर आई। बाजारु उत्पादों के लिए गांवों का रास्ता आसान हुआ। स्थानीय लुहार के दरवाजे जाने की बजाय, किसानों ने निजी कंपनियों का फावड़ा थामा। इससे देसी कारीगरी को धक्का लगा। वह इन कंपनियों के कमजोर  किंतु सस्ते फावड़े से उसी तरह हार गई, जिस तरह आज चीन के घटिया किंतु सस्ते उत्पाद भारत के कुटीर उद्योगों को नष्ट कर रहे हैं। बाजार के प्रवेश का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गांव में ऐसे उत्पाद पहुंचे, पहले जिनके बिना भी ग्रामीण जीवन चलता था। फलतः गांवों से पलायन बढ़ा। दृष्टि व्यावसायिक हुई, जो गांव आवश्यकता से अधिक होने पर दूध-साग आदि को गांव में बांटकर भी पुण्य कमाने का घमंड नहीं पालता था, वही अब अपने बच्चे को भूखा रखकर भी दूध बेचकर पैसा कमाना चाहता है। मनरेगा के बदलाव भिन्न हैं, कई मायने में रचनात्मक व प्रेरित करने वाले। मनरेगा जाति भेद नहीं करता। वह श्रम निष्ठ को काम की गारंटी देता है। अंतिम जन को कई और गारंटी देने आई सरकार की भिन्न योजनाएं, जनजागृति के अभाव में पहले नाकामयाब रहीं। जेब मे मजूरी के पैसे की गारंटी से जगी जिज्ञासा ने उन योजनाओं की कामयाबी की उम्मीद बढ़ा दी है। ग्रामीण स्कूलों में बालिकाओं के प्रवेश की संख्या भी बढ़ने लगी है और उनके अव्वल आने की सुनहरी लकीरें भी। हालांकि यह बदलाव अभी ऊंट के मुंह में जीरे जैसा ही है, लेकिन इसकी गति इतनी तेज है कि यदि मनरेगा पूरी ईमानदारी से लागू हो सका, तो जल्द ही मनरेगा गांवों मे सामाजिक विन्यास की नई चुनौतियों व विकास का पर्याय बन जायेगा। बहरहाल, संप्रग सरकार द्वारा लागू किए गए मनरेगा के गुण जितने भी गाएं जाएं, कम ही होंगे।