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भारतीय जेलों में कैदियों की संख्या क्षमता से अधिक

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5 Dariya News

14 Aug 2017

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रपट के अनुसार भारतीय जेलों में औसत भीड़ दर 14 प्रतिशत है। हालांकि रपट में यह खुलासा नहीं किया गया है कि देश की 149 जेलें क्षमता से 100 फीसदी से अधिक और आठ जेलें 500 फीसदी से अधिक भरी हुई हैं। इन चौंकाने वाले आंकड़ों का खुलासा केंद्र सरकार द्वारा आठ अगस्त को लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में किया गया। जवाब में तमिलनाडु के ईरोड जिले में स्थित सत्यमंगलम उप-कारागारा की भयानक स्थिति पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है, जहां 16 कैदियों के लिए बने स्थान में 200 कैदियों को 'ठूसकर' रखा गया है।इन आंकड़ों में हालांकि अंधेरे, बदबूदार और बंद स्थान में रहने की तकलीफ का जिक्र नहीं है, जहां निजता नाम की कोई चीज नहीं है, जहां शरीर के अस्तित्व पर लगातार खतरा मंडराता रहता है और जहां पैसा और ताकत यह सुनिश्चित करता है कि आपको पैर फैलाने के लिए कितनी जगह नसीब होगी और जहां कैदियों के रूप में और मेहमानों के आने का अर्थ है कि आपको खाने और स्वच्छता के साथ और समझौता करना पड़ेगा।

भारत में कैदियों को आमतौर पर बड़ी डॉरमिटरियों में रखा जाता है, जहां कैदियों को गरिमा और रहने की बुनियादी स्थितियों की परवाह किए बिना बेहद कम जगह में रखा जाता है।यह कैदियों के साथ व्यवहार के संयुक्त राष्ट्र के न्यूनतम मानक मूल्यों के अनुरूप नहीं है, जिसके अनुसार कैदियों के रहने के स्थान के लिए 'न्यूनतम स्थान, रोशनी, गर्मी और हवादार' होने की बुनियादी शर्तो का ध्यान रखा जाना चाहिए।हालांकि, दुनियाभर में जेलों को एक सुधारात्मक व्यवस्था के तौर पर पहचाना जाता है, लेकिन भारतीय जेलें अब भी 123 साल पुराने कानून -'कारागार अधिनियम' के तहत संचालित की जाती हैं। जेलें भी अधिनियम की तरह ही जंग लगी और पुरानी हैं, जिन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। इसका इनमें रहने वाले कैदियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है।जेलों के अत्यधिक भरे होने का पहले से ही सीमित जेल संसाधनों पर और भी बुरा प्रभाव पड़ता है और इससे विभिन्न श्रेणियों के कैदियों के बीच फर्क करना भी मुश्किल हो जाता है।मुल्ला समिति की सिफारिशें लागू करने को लेकर पुलिस शोध और विकास ब्यूरो की रपट में खुलासा हुआ है कि अत्यधिक भरी होने के कारण जेलों में से 60 प्रतिशत में नए कैदियों को कोई विशेष बैरक देना संभव नहीं होता।इस समस्या को विस्तार से समझने के लिए जेलों के अत्यधिक भरे होने के स्तर से अलग करके देखने की जरूरत है।

अधिकांश भारतीय जेलें औपनिवेशिक काल में बनाई गई थीं और उन्हें लगातार मरम्मत की जरूरत है। इनमें से कुछ में लंबी अवधि तक किसी को नहीं रखा जा सकता। जेलों में कैदियों को रखने की क्षमता इस लिहाज से और कम हो जाती है, लेकिन आधिकारिक आंकड़ों में यह तथ्य सामने नहीं आया।इतना ही नहीं दोषी साबित हो चुके और जिन पर अभियोग चल रहा हो, ऐसे कैदियों को भी अलग-अलग रखा जाना जरूरी है। इसी तरह मानसिक समस्या और संक्रामक रोगों से ग्रस्त कैदियों को भी अलग रखा जाना जरूरी है। कैदियों को इस प्रकार अलग रखने की जरूरत भी कैदियों को रखे जाने की क्षमता को प्रभावित करती है। लेकिन क्षमता दर में इस बात को ध्यान में नहीं रखा जाता।स्टाफ की अत्यधिक कमी के कारण भी स्थिति अधिक गंभीर है। निगरानी के अभाव में कैदी लंबी अवधि तक अपने बैरकों में कैद रहते हैं। इसके कारण तनाव और हिंसा की संभावना भी बढ़ जाती है। ऐसी घटनाओं के प्रबंधन और रोकथाम के लिए संसाधनों की कमी के कारण भी सुधारात्मक सुविधाओं और निजता की जरूरत पर बेहद कम ध्यान दिया जाता है।

अगर लक्ष्य जेल की स्थितियों को 'मानवीय' बनाना है, तो जेलों में अत्यधिक कैदियों की उपस्थिति के मूल कारणों की पहचान जरूरी है। मांग और आपूर्ति दोनों की समस्या स्पष्ट है। एक लाख की आबादी में 33 कैदियों के आंकड़े के साथ भारत में बंदीकरण की दर दुनिया में सबसे कम है। अगर सरकार इन कैदियों को रखने की सही सुविधा प्रदान नहीं कर सकती, तो यह दर्शाता है कि सरकार जेलों और व्यापक तौर पर अपराधिक न्याय को कितनी प्राथमिकता देती है।सरकार को और जेलें बनाने और वर्तमान में मौजूद जेलों को नया रूप देने की जरूरत है। जेल आधुनिकीकरण योजना, जिसके तहत 125 नई जेलों का निर्माण किया गया था, को 2009 में बंद कर दिया गया। लोकसभा में जब सरकार से इसके पुनरुत्थान के बारे में पूछा गया, तो सरकार ने इस पर कोई जवाब नहीं दिया।हालांकि सरकारी आंकड़ों में जेलों के गंभीर स्तर पर भरे होने की चिंतनीय स्थिति का खुलासा हुआ है, लेकिन अब भी स्थिति की गंभीरता पूरी तरह सामने नहीं आई है। सरकार को और जेलें बनाने और उनके संचालन को पारदर्शी और मानवीय बनाने के लिए और कर्मचारियों को नियुक्त करने की जरूरत है।

 

Tags: KHAS KHABAR

 

 

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