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उत्तर प्रदेश चुनाव : नरैनी में दरक सकता है बसपा का मजबूत 'किला'

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बांदा (उत्तर प्रदेश ) , 28 Jan 2017

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में बांदा जिले की नरैनी सीट पर अबकी बार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और बसपा उम्मीदवार गयाचरण दिनकर का मुकाबला भाजपा के अलावा सपा-बसपा गठबंधन से होगा। पिछले चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हुई यह सीट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बाद बसपा का गढ़ बनी हुई है। यहां से लगातार चौथी बार बसपा के उम्मीदवार चुनाव जीते हैं, लेकिन इस बार बसपा का यह मजबूत किला 'कमजोर' दिख रहा है और सपा-कांग्रेस गठबंधन या भाजपा के धक्के से दरक सकता है।
बुंदेलखंड में बांदा जिले की सुरक्षित नरैनी सीट पर कभी वामपंथियों का डंका बजता था, करीब दो दशक से यह सीट बसपा का मजबूत किला बनी हुई है। अब तक हुए विधानसभा के 15 चुनावों में कांग्रेस, भाकपा और बसपा के चार-चार, जनसंघ, भाजपा और सपा का एक-एक विधायक चुना गया। 1996 के चुनाव के बाद यह सीट बसपा का गढ़ बन गई है। वर्ष 1951 में पहली बार हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के श्यामाचरन, 1957 में कांग्रेस के ही गोपीकृष्ण आजाद चुनाव जीते थे। 1962 में जनसंघ के ठाकुर मतोला सिंह, 1967 में बीजेएस के जे. सिंह और 1969 में कांग्रेस के हरवंश पांडेय के चुनाव जीतने के बाद 1974 से यह सीट भाकपा का गढ़ बनी।
सन् 1974 के चुनाव में भाकपा के चंद्रभान आजाद ने कांग्रेस से यह सीट छीन ली थी। 1977 में सीपीआई के डॉ. सुरेंद्र पाल वर्मा जीते और 1980 में एक बार फिर कांग्रेस के हरवंश पांडेय के चुनाव जीतने के बाद यहां अब तक कांग्रेस पनप नहीं पाई।सन् 1985 से 1989 तक भाकपा के सुरेंद्र पाल वर्मा का कब्जा रहा, लेकिन 1991 में राम लहर के चलते यहां भाजपा के रमेशचंद्र द्विवेदी चुनाव जीत गए। इस दौरान वर्मा ने पाला बदला और भाकपा छोड़ वह समाजवादी पार्टी में शामिल हुए और 1993 के वह चुनाव में चौथी बार विधायक बने। सन् 1996 में बसपा के बाबूलाल कुशवाहा यहां से विधायक बने तो सुरेंद्र पाल वर्मा ने एक बार फिर पाला बदला और बसपा में शामिल होकर 2002 का चुनाव जीता था।
2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने यहां से पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी को मैदान में उतारा। वह चुनाव भी जीते, लेकिन शीलू निषाद दुष्कर्म कांड में फंसने के बाद उनका कार्यकाल जेल में ही बीता। नए परिसीमन में यह सीट अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित होने के बाद 2012 के चुनाव में बसपा के गयाचरण दिनकर (अब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष) ने सपा के भरतलाल दिवाकर को हराया। इस चुनाव में बसपा के गयाचरण दिनकर को 52,195, सपा के भरतलाल दिवाकर को 47,438, भाजपा के राजकरन कबीर को 38,058 और कांग्रेस के महेंद्र सिंह वर्मा को मात्र 20,418 मत मिले थे।इस बार के विधानसभा चुनाव में यह सीट सपा-कांग्रेस गठबंध में सपा के खाते में गई है, लेकिन बसपा, सपा और भाजपा ने 2012 के पुराने उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। इस बार यहां कुल मतदाताओं की संख्या 3,35,149 है, जिनमें 1,51,333 महिलाएं और 1,83,806 पुरुष मतदाता है।
यहां दलित 85,000, ब्राह्मण 48,000, लोधी 32,500, यादव 23,000, कुर्मी 22,000, मुस्लिम 20,000, निषाद 18,500, क्षत्रिय 17,000, वैश्य 15,000, कुम्हार 9,500 और पाल 8,500 के आस-पास और शेष अन्य हैं। जानकारों का कहना है कि पिछले चुनाव होने से पूर्व ही पूर्व मंत्री आर.के. पटेल की फिर बसपा में वापसी होना तय हो गया था, इसलिए पटेल ने भूमिगत होकर बसपा के पक्ष में अपनी बिरादरी के मतों का ध्रुवीकरण करवाया था, लेकिन अब पटेल भाजपा में हैं और चित्रकूट की मानिकपुर सीट से भाजपा उम्मीदवार भी हैं। ऐसी स्थिति में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और बसपा उम्मीदवार गयाचरण दिनकर को अपनी चुनावी रणनीत में काफी बदलाव करना होगा, क्योंकि पिछले चुनाव में हर कौम से जुड़े दलित मतदाता उनके साथ थे, अबकी बार जाटव कौम के अलावा अन्य कौम से ताल्लुक रखने वाले दलित मतदाता उनसे काफी नाखुश हैं।
हालांकि सपा और भाजपा उम्मीदवारों की पकड़ भी खुद की बिरादरी में कमजोर मानी जा रही है। बकौल दिनकर पिछले चुनाव में उन्हें कोरी मतदाता करीब 42 फीसदी और घोबी मतदाता 30 फीसदी मिला था।
इस बार से भाजपा ने कोरी बिरादरी के राजकरन कबीर और गठबंधन से सपा ने धोबी बिरादरी के भरतलाल दिवाकर को मैदान में उतारा है, यह दोनों उम्मीदवार पिछला चुनाव भी लड़ चुके हैं। जहां तक ब्राह्मण मतदाताओं की बात है तो हर विधानसभा चुनाव की तरह इस बार भी उनके 'सरयूपारीन' और 'कान्यकुब्ज' धड़े में बंटने के आसार हैं। अबकी बार गठबंधन से उतर रहे भरतलाल को राजनीतिक विश्लेषक कम नहीं आंक रहे, उनका तर्क है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस के खाते में गए 20,418 मत उम्मीदवार महेंद्र सिंह वर्मा के कौम (जाटव) के नहीं थे, बल्कि वह कांग्रेस के पुश्तैनी मत हैं।
अगर सपा और कांग्रेस के कार्यकर्ता सामंजस्य बनाकर चुनाव लड़े तो बसपा पिछड़ सकती है।साथ ही वह यह भी कहते हैं कि भाजपा 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान अपने मतों को सहजने में सफल रही तो वह जीतने की स्थिति में भी हो सकती है। इस विधानसभा सीट से 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार (जीते हुए) भैरों प्रसाद मिश्र को करीब 73 हजार मत मिला था। इसी प्रकार सपा और कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में मिले मतों को जोड़ें तो 67 हजार के पार होते हैं, जबकि इस बार बसपा उम्मीदवार से जहां कुर्मी मतदाताओं के कटने के आसार हैं, वहीं काफी हद तक दलित कौम के कोरी, धोबी, खटिक, मेहतर और कुछबंधिया अपनी राजनीतिक उपेक्षा के चलते बसपा से नाराज दिख रही है।
इन दलित मतदाताओं की संख्या कुल दलित मतदाताओं में आधे से ज्यादा है। बसपा विधानसभा इकाई नरैनी के अध्यक्ष गोकरन वर्मा कहते हैं, "बसपा बूथ स्तर तक चुनाव की तैयारी कर चुकी है, अपने रूठे मतदाताओं का मना लेगी और पांचवीं बार भी बसपा का नीला झंडा फहराएगा।" जबकि प्रसिद्धपुर गांव के मतदाता चंदीलाल और उसरापुरवा के रामकिशोर कोरी का कहना है, "बसपा विधायक ने उन्हें पांच साल में एक अदद हैंडपंप तक नहीं दिया, किस उम्मीद से बसपा के पक्ष में मतदान करें?" शाहपाटन गांव के भोंदू निषाद का कहना है, "इस साल रंज नदी में आई भीषण बाढ़ में सैकड़ों लोग बेघर हो गए, विधायक जी यहां देखने तक नहीं आए, अब चुनाव के समय क्या करने आएंगे?" निवर्तमान विधायक और बसपा उम्मीदवार गयाचरण दिनकर कहते हैं, "उनकी मंशा हमेशा विकास की रही है, लेकिन राजनीतिक भेदभाव विकास में बाधक रहा है। फिर भी अन्य विधायकों के अपेक्षा ज्यादा विकास कराया है।
राज-पाट की लड़ाई में बहुजन समाज का मतदाता मतभेद भुलाकर बसपा के पक्ष में ही मतदान करेगा।"भाजपा उम्मीदवार राजकरन कबीर कहते हैं, "भाजपा प्रदेश में विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कल्याणकारी योजनाएं ही उन्हें जीत दिलाएगी। नोटबंदी से भ्रष्टाचार और कालेधन पर रोक लगी है, इससे भाजपा को कोई नुकसान होने वाला नहीं है।" इधर, सब्जी बेचकर परिवार का बसर चलाने वाले गौर-शिवपुर गांव के बिल्लू केवट का कहना है, "नोटबंदी से सब्जी तक की बिक्री बंद हो गई, तमाम गरीबों के घरों में बच्चे भूख से बिलबिलाते रहे हैं।
यह हम कैसे भूल जाएं। कलाधन किसी ने छिपाया और दर्द हम बेकसूरों को दिया गया। चुनाव बाद ये नेता गरीबों से दूर होकर सिर्फ अपना घर भरते हैं। हमारी सुध लेने कौन आता है।"राजनीतिक विश्लेषक रणवीर सिंह चौहान एड़ कहते हैं कि बसपा उम्मीदवार जहां राजनीति की जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं, वहीं भाजपा और सपा उम्मीदवार इससे अनजान हैं। नरैनी सीट में बसपा, सपा और भाजपा के बीच त्रिकोणीय संघर्ष की नौबत जरूर है, लेकिन सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा के सिपहसालार गंभीरता से रणनीत बनाकर चुनाव लड़ें और जोर का धक्का दें तो बसपा का यह मजबूत 'किला' दरक भी सकता है।


 

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