देश में चार स्थानों पर लोकसभा उपचुनाव 19 नवंबर को हैं। भौगोलिक दृष्टि से पूर्व और उत्तर-पूर्व में तीन स्थानों असम में लखीमपुर तथा पश्चिम बंगाल में कूचबिहार और तमलुक के बाद जम्मू एवं कश्मीर से तमिलनाडु और और गुजरात से बिहार-झारखंड के बीच केवल मध्यप्रदेश का शहडोल लोकसभा उपचुनाव ही ऐसा है जिस पर सभी की नजर है। इसका कारण एक तो देश में मध्य स्थित प्रांत है दूसरा कई उद्योगों, दर्जनों कोयला खदानों, कल कारखानों, 3 बड़े बिजली घरों, पहले जनजातीय विश्वविद्यालय के चलते, एक तरह से लघु भारत का स्वरूप लिए हुए है जिनमें देश भर से लोग सेवारत हैं। उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम यानी हर प्रांत, हर क्षेत्र के लोग यहां हैं और कई तो मतदाता भी बन गए हैं। जाहिर है शहडोल संसदीय क्षेत्र 'अनुसूचित जनजाति' के लिए सुरक्षित होने के बावजूद बेहद महत्वपूर्ण है तथा कम से कम इस उपचुनाव में तो और भी ज्यादा। शायद यही कारण है कि शहडोल उपचुनाव को देश के लिए नए रुझानों की नब्ज कहें या हवा का ताजा रुख, के तौर पर भी देखा जा रहा है।
पहली जून को यहां के सांसद दलपत सिंह परस्ते का निधन हुआ और तभी से इस क्षेत्र में प्रदेश के मुख्यमंत्री की नियमित रूप से सक्रियता बनी रही। 17 अक्टूबर को आचार संहिता लागू होने तक औसतन हर दिन लोकसभा के किसी न किसी क्षेत्र में, सरकारी आयोजनों में कोई मंत्री या स्वयं मुख्यमंत्री रहे। पूरे क्षेत्र में सैकड़ों करोड़ रुपयों की सौगातों सहित कई अन्य घोषणाएं हुईं। लेकिन मतदाता अब भी खामोश है। विविधताओं से भरे इस लोकसभा सीट अंतर्गत आने वाले 8 विधानसभा क्षेत्रों बडवारा, बांधवगढ, मानपुर, जयसिंह नगर, जैतपुर, कोतमा, पुष्पराजगढ़, अनूपपुर में बंटे क्षेत्र को 2018 के प्रदेश में विधानसभा चुनाव से जोड़कर तो 2019 के लोकसभा चुनावों की रणनीति के लिए भी राजनैतिक दलों का बैरोमीटर कहा जा रहा है।
1951 से लेकर अब तक 16 बार हुए चुनावों में सबसे ज्यादा 6 बार कांग्रेस ने यहां जीत हासिल की है जबकि 5 बार भारतीय जनता पार्टी जीती। 1977 में जनता पार्टी और 1989 में भारतीय लोकदल दल की जीत हुई।
1951 और 1962 में सोशलिस्ट पार्टी तथा 1971 में निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे। सबसे ज्यादा चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार दिवंगत सांसद दलपत सिंह परस्ते थे जो एक-एक बार जनता पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय लोकदल तथा 3 बार भाजपा की टिकट पर चुनाव जीते। चुनाव में प्रत्याशी की घोषणा में जरूर कांग्रेस ने यहां बाजी मार ली। उसने काफी पहले प्रत्याशी की घोषणा कर दी थी। वहीं भाजपा में अंतिम क्षणों तक अनिश्चितता का माहौल बना रहा। दिवंगत दलपत सिंह परस्ते के परिवार की ओर से टिकट की मांग की गई थी लेकिन प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह ने अपने कैबिनेट मंत्री और लोकसभा क्षेत्रान्तर्गत बांधवगढ़ विधायक ज्ञान सिंह को अपना प्रत्याशी बनवाकर, बड़ा दांव खेला है। वहीं कांग्रेस ने, यहीं से 3 बार सांसद रहे पूर्व केन्द्रीय मंत्री दिवंगत दलबीर सिंह और एक बार सांसद रहीं उनकी पत्नी दिवंगत राजेश नंदिनी की बेटी कु. हिमाद्री सिंह को मैदान में उतारकर बड़ी चुनौती दी है। यूं तो 17 अन्य प्रत्याशी मैदान में हैं लेकिन सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है। गुटबाजी दोनों ही दलों में साफ-साफ दिख रही है फिर भी चुनाव प्रबंधन में भाजपा, कांग्रेस से बहुत आगे है।
यहां चुनाव की कमान स्वयं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह संभाले हुए हैं जबकि कांग्रेस की ओर से कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, विवेक तन्खा, मोहन प्रकाश, अरुण प्रकाश सहित कई नेताओं ने मतदाताओं को रिझाने की कोशिशें की। बावजूद इतना सब, लघु भारत की विविधताओं को समेटे शहडोल लोकसभा सीट का मतदाता खामोश है। शायद इसीलिए मध्यप्रदेश के मुखिया चौकन्ने हैं। इस सबके बीच कई नेताओं यहां तक कि कथित तौर एक प्रत्याशी की बदजुबानी, इसके खिलाफ कांग्रेस प्रत्याशी की मुख्यमंत्री को सार्वजनिक हुई चिट्ठी, भी खूब सुर्खियों में रही। लेकिन इनता तय है कि इस चुनाव को 2018 के प्रदेश विधानसभा चुनाव तथा 2019 के लोकसभा चुनाव की रणनीति के लिए भी राजनैतिक दलों का बैरोमीटर कहा जा रहा है। कुछ भी हो, अचानक हुई नोटबंदी से दो-तीन दिन प्रचार अभियान में जबरदस्त सन्नाटे के बाद नए और फुटकर नोटों की जुगाड़ में परेशान मतदाता नमक संकट की अफवाह से भी ऐसा हलकान हुआ कि लाख कोशिशों के बाद भी निर्विकार है, खामोश है। देखना है कि 22 नवंबर को आने वाले नतीजे में शहडोल के मतदाओं की 'मन की बात' किसके पक्ष में बनेगी 'जन की बात'!
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)