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चौदह साल बाद इंसाफ पर सवाल कितना जायज?

राजीव रंजन तिवारी
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5 Dariya News ( राजीव रंजन तिवारी )

03 Jun 2016

वर्ष २००२ में हुए गुजरात के गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड पर स्पेशल एसआइटी कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए दो दर्जन लोगों को दोषी जबकि ३६ लोगों को बेगुनाह करार दिया है। कोर्ट ने जिन ३६ लोगों को बरी किया है उनमें एक पुलिस इंस्पेक्टर और भाजपा नेता बिपिन पटेल शामिल है। आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी किया गया। फरवरी २००२ में गुजरात के गोधरा कांड के बाद उत्तेजित भीड़ ने गुलबर्ग सोसायटी पर धावा बोल कर बहुत से लोगों की हत्या कर डाली थी। इस सोसायटी में रहने वाले कांग्रेस के पूर्व सांसद अहसान जाफरी समेत ६९ मुसलमानों को जला कर मार डाला गया था। इस हत्याकांड को अंजाम देने का आरोप एक स्थानीय पुलिस इंस्पेक्टर समेत कुल ६१ लोगों पर लगा था। इनमें से केवल नौ लोग जेल में बंद हैं। गुलबर्ग सोसायटी कांड में मारे गए कांग्रेस नेता जाफरी की पत्नी जाकिया जाफरी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की अपनी अर्जी में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई लोगों पर आरोप लगाया था। एसआईटी ने मार्च २०१० को नरेंद्र मोदी से लंबी पूछताछ की जिसमें मोदी ने खुद पर लगाए गए आरोपों से इंकार किया था। इस मामले में एसआईटी कोर्ट के फैसले पर जाकिया जाफरी ने असंतोष जाहिर किया है। जाफरी ने कहा कि यह आधा न्याय है, जिसे मिलने में भी १४ साल लग गए। जज पीबी देसाई ने अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी में हुए इस हत्याकांड पर फैसला सुनाते हुए कहा कि वह घटना एक औचक हमला था, कोई सोची समझी आपराधिक साजिश नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम को २००२ के गुजरात दंगों में गुलबर्ग कांड समेत नौ और मामलों की जांच की जिम्मेदारी सौंपी है।

आखिरकार गुलबर्ग सोसायटी मामले में अदालत ने को अपना फैसला सुना दिया। फैसले को लेकर असंतोष की गुंजाइश शायद बनी रहेगी जैसा कि पीड़ित पक्ष का चेहरा मानी जाने वाली जकिया जाफरी की प्रतिक्रिया से भी लगता है। पर अगर सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप न रहा होता, तो सारी कार्यवाही न्याय का मखौल साबित हो सकती थी। चौबीस दोषी ठहराए गए लोगों में से अदालत ने ग्यारह को हत्या का दोषी पाया है और तेरह को उससे कम के अपराध का। छह आरोपियों की मौत हो चुकी है। आम धारणा रही है कि यह हत्याकांड सुनियोजित था। अक्टूबर २००७ में एक स्टिंग ऑपरेशन ने इस कांड की तैयारी की बाबत कुछ लोगों की आपसी बातचीत का खुलासा किया था। पर अदालत ने किसी को भी षड्यंत्र का दोषी नहीं ठहराया है, क्योंकि इसके लिए अदालत की निगाह में पर्याप्त सबूत नहीं थे। तो क्या यह जांच और अभियोजन की कमजोरी मानी जाएगी? २८ फरवरी २००२ को हजारों की हिंसक भीड़ ने गुलबर्गा सोसायटी पर हमला बोल दिया था। मारे गए ६९ लोगों में कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी भी थे। नरोदा पाटिया, बेस्ट बेकरी, सरदारपुरा जैसी इस तरह की और भी भयानक घटनाएं हुई थीं। इन घटनाओं को रोक न पाने के लिए तो तत्कालीन राज्य सरकार पर तोहमत लगी ही, उस पर यह आरोप भी लग रहा था कि उसकी दिलचस्पी आरोपियों को बचाने में है, इसलिए सबूतों तथा अभियोजन की प्रक्रिया को कमजोर करने की कोशिश हो रही है। इस प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर संदेह जताने वालों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी था। आखिरकार आयोग और गैर-सरकारी संगठन सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, जिनमें जांच सीबीआई को सौंपने और मुकदमे राज्य से बाहर चलाने की मांग की गई थी, सर्वोच्च अदालत ने गुलबर्ग सोसायटी, नरोदा पाटिया, सरदारपुरा जैसे दस बड़े हत्याकांडों से जुड़े मामलों की न्यायिक प्रक्रिया फौरन रोक देने का आदेश दिया, और राज्य सरकार से कहा कि वह इन मामलों की जांच के लिए एसआइटी यानी विशेष जांच टीम गठित करे। 

सीबीआइ के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में एसआइटी गठित की गई जिसने मामलों की नए सिरे से जांच शुरू की। अलबत्ता एसआइटी की कार्यप्रणाली पर भी समय-समय पर सवाल उठे। एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट मई २०१० में सर्वोच्च अदालत को सौंपी। खुद सर्वोच्च अदालत की ओर से नियुक्त गए एमिकस क्यूरी यानी न्यायमित्र ने उस रिपोर्ट पर कई सवाल उठाए थे। अदालत ने एसआइटी से उन संदेहों का निराकरण करने को कहा। फिर एसआइटी ने और भी ब्योरों के साथ अपनी अंतिम रिपोर्ट मार्च २०१२ में सौंपी। गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड का फैसला चौदह साल बाद आया है। गुजरात दंगों के और भी कई मामलों में फैसला आना बाकी है। इतने लंबे समय में जांच की निष्पक्षता पर शक जताने, सबूतों को कमजोर करने के आरोपों और कई मामलों में गवाहों के मुकरने आदि की लंबी कहानी है। इन अनुभवों ने भी रेखांकित किया है कि पुलिस को राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त रखने की संस्थागत व्यवस्था की जाए, जैसी कि सिफारिश सोली सोराबजी समिति ने की थी। २००२ के गुजरात दंगों ने पूरी राष्ट्रीय राजनीति को जैसे बांट दिया था। अब १४ साल बाद गुलबर्ग सोसाइटी का फ़ैसला आया है तो फिर से इंसाफ़ का सवाल राजनीति के आईने में देखा जाने लगा है। कोर्ट के फैसले पर कांग्रेस का कहना है कि १४ साल बाद आधा न्याय मिला है। जो सूत्रधार हैं, गुलबर्ग कांड के वो बचे हुए हैं। गुलबर्ग सोसाइटी मामले में ३६ आरोपियों के बरी होने पर ही कांग्रेस सवाल नहीं उठा रही, वो उस हिंसा के सूत्रधारों की याद भी दिला रही है। आरोप है कि गुलबर्ग केस में ३६ आरोपी बरी हो गए, क्योंकि अभियोजन पक्ष ने अपना काम ठीक से नहीं किया। कांग्रेस का दावा है कि पीड़ितों को पूरा न्याय नहीं मिला। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा कि कन्विक्शन सभी का होना चाहिए था, लेकिन जब अभियोजन और बचाव पक्ष बचाने में लगे हों तो क्या उम्मीद कर सकते हैं? शिवसेना ने कहा कि जो संतुष्ट नहीं वो इसे कोर्ट में चुनौती दें। 

गुजरात के इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने वाली तीस्ता सीतलवाड़ ने इस मामले में साज़िश के न साबित होने पर सवाल उठाया है। इस फैसले में महत्वपूर्ण बात ये रही कि कोर्ट ने इसे किसी षडयंत्र के तहत हुआ हत्याकांड नहीं माना। कुल दोषियों में से १३ को कम संगीन जुर्म में दोषी माना यानि एसआईटी ने जिन ६६ लोगों के ख़िलाफ़ आरोप पत्र दायर किया था, उसमें से आधे लोगों को सज़ा दिलाने में नाकाम रही। न्याय का पहिया धीरे-धीरे घूमता है लेकिन घूमता जरूर है। उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। वहां सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से फायदा होने की उम्मीद है। गुलबर्ग सोसायटी के बारे में फैसला आने से इस प्रक्रिया को बल मिल सकता है। लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि इस फैसले के सकारात्मक पक्ष की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। आजाद भारत में अनेक सांप्रदायिक दंगे हुए हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है जब इनमें सक्रिय भूमिका निभाने वालों को सजा मिलती हो। गुलबर्ग सोसायटी के मामले में अनेक अभियुक्तों को बरी कर दिया गया है लेकिन २४ अभियुक्तों का दोषी पाया जाना भी कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। जिन्हें छोड़ा गया है उन्हें भी पर्याप्त सुबूत के अभाव में छोड़ा गया है। सर्वविदित है कि स्वयं गुजरात सरकार ने २००२ में हुई हिंसा के मामले से जुड़े अनेक दस्तावेजों को नष्ट करवाया है क्योंकि ऐसे नियम हैं जिनके अनुसार समय-समय पर गैर-जरूरी दस्तावेज नष्ट किए जाते हैं। इसके बावजूद २४ लोगों को सजा सुनाई जाएगी और यह एक बड़ी सफलता है। बहरहाल, देखना है कि इस फैसले का देश की सियासत पर क्या असर होता है?

संपर्कः राजीव रंजन तिवारी, द्वारा- श्री आरपी मिश्र, ८१-एम, कृष्णा भवन, सहयोग विहार, धरमपुर, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश), पिन- २७३००६. फोन- ०८९२२००२००३.

 

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