Wednesday, 24 April 2024

 

 

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इसे कांग्रेस की जीत कहें या भाजपा की हार?

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5 Dariya News (राजीव रंजन तिवारी)

22 Apr 2016

उत्तराखंड में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार को पांचवें साल में अस्थिर करने, बर्खास्त करने, प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा देने और फिर वहां सरकार बनाने की केंद्र और बीजेपी की कोशिशों को तब बड़ा झटका लगा जब नैनीताल हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को गैरकानूनी करार दिया। अदालत ने प्रदेश से राष्ट्रपति शासन हटाने के निर्देश दिए हैं और प्रदेश में १८ मार्च की राजनीतिक स्थिति को बहाल करते हुए २९ अप्रैल को सदन में बहुमत परीक्षण के आदेश दिए हैं। धारा ३५६ के दुरुपयोग के लिए भाजपा हमेशा से कांग्रेस को कोसती रही है। अब वह अपने पुराने रुख से उलट राह पर चल पड़ी है। मामला एक चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने से पहले बहुमत साबित करने का मौका न देने बल्कि मौका घोषित करके भी न देने और इस तरह एक गंभीर संवैधानिक तकाजे को ताक पर रख देने का है। दरअसल, २१ फरवरी को नैनीताल हाईकोर्ट फिर बिफर पड़ी। इससे पहले भी अदालत ने दो बार केंद्र को खरी-खोटी सुनाई थी। 

अपनी एक टिप्पणी में केंद्र के महाधिवक्ता से कोर्ट की पीठ ने कहा था कि आप लोकतंत्र की जड़ें काट रहे हैं। दूसरी अहम टिप्पणी थी कि राष्ट्रपति के फैसले की भी न्यायिक समीक्षा संभव है। इन दोनों टिप्पणियों से यह संकेत मिल गए थे कि कोर्ट का रुख क्या है। पर सवाल है कि केंद्र ने अपने निर्णय को राष्ट्रपति के निर्णय की तरह क्यों पेश किया? राष्ट्रपति शासन औपचारिक तौर पर भले राष्ट्रपति की मंजूरी से लगाया जाता है, पर इसका निर्णय तो केंद्र सरकार करती है। वही जवाबदेह होती है। उसने जवाबदेही से बचने की कोशिश क्यों की? फिर, राज्यपाल की रिपोर्ट के हवाले ने भी केंद्र को कठघरे में खड़ा किया। अब सवाल यह है कि इस फैसले को कांग्रेस की जीत कही जाए अथवा भाजपा की हार? खैर, रावत को फिलहाल राहत तो मिल गई है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि वे पद पर बने ही रहेंगे। अगर वे बहुमत साबित नहीं कर पाए तो कांग्रेस के बागी विधायकों को लेकर भाजपा सरकार बनाने का दावा पेश कर सकती है।

च्बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले' या च्अपने ही हाथों अपने हाथ जला लिए'– आज ये कहना कठिन है कि उत्तराखंड के संदर्भ इनमें से कौन सा मुहावरा केंद्र के लिये अधिक सटीक बैठेंगे। अदालत ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि रावत सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला लोकतंत्र की जड़ें काटने की तरह है। अदालत ने कहा कि राज्यपाल केंद्र का एजेंट नहीं है और ये भी कहा कि राष्ट्रपति से भी भूल हो सकती है और राष्ट्रपति के आदेश का न्यायिक पुनरीक्षण किया जा सकता है। हाईकोर्ट ने केंद्र के रवैये पर कई ऐसे सवाल भी पूछ डाले जिनसे भारत सरकार के महाधिवक्ता और अन्य वरिष्ठ वकीलों के लिये बगलें झांकने की नौबत आ गई। जैसे कि ये कहना कि आखिर बहुमत के लिये तय तारीख के एक दिन पहले राष्ट्रपति शासन लगाने की क्या हड़बड़ी थी। 

उत्तराखंड में २७ मार्च को कांग्रेस की हरीश रावत सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। इससे पहले केंद्र ने राज्यपाल के उस आदेश की भी अनदेखी कर दी जो उन्होंने २८ मार्च को सरकार को सदन में बहुमत साबित करने के लिए दिया था। एक तरह से अदालती गलियारे और कानूनी पेचीदगियों में फंसे इस मामले का तात्कालिक अंत तो हो गया है लेकिन अनुच्छेद ३५६ के इस्तेमाल से जुड़ी विसंगतियों और केंद्र राज्य संबंधों और अधिकारों के प्रश्नों का पटाक्षेप नहीं हुआ है। इसमें कोई आश्चर्य इसलिये नहीं होना चाहिए क्योंकि केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी वही कर रही है जो केंद्र में रहते हुए कांग्रेस कई बार कर चुकी है। 

१९९४ में एसआर बोम्मई बनाम संघ सरकार मामले के पहले तक ये प्रस्थापना थी कि अदालतें धारा ३५६ के इस्तेमाल का न्यायिक पुनरीक्षण नहीं कर सकती है। लेकिन १९९४ के इस बहुचर्चित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने असाधारण फैसला दिया कि केंद्र द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले का न्यायिक पुनरीक्षण किया जा सकता है। नैनीताल हाइकोर्ट का आज का फैसला भी उसी फैसले की भावना के अनुरूप है जिसमें ये माना गया है कि अगर कुछ विधायक किसी सरकार से समर्थन वापस ले लेते हैं तो सरकार के भविष्य का फैसला सदन में बहुमत परीक्षण से ही हो सकता है। गौरतलब है कि संविधान सभा में बहस के दौरान भी धारा ३५६ के संभावित दुरुपयोग की आशंकाएं जताई गई थीं। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि संविधान के इस प्रावधान को ठंडे बस्ते में ही रहने दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि अगर कभी इसके इस्तेमाल की नौबत भी आए तो पहले पर्याप्त चेतावनी दिया जाना जरूरी होगा। 

लेकिन ऐसा नहीं हुआ और ७० और ८० के दशक में बड़े पैमाने पर इस प्रावधान का दुरूपयोग कर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकारें गिराई गईं। अब तक इस प्रावधान का सौ स ज्यादा बार इस्तेमाल हो चुका है। खैर, उत्तराखंड के मसले के मद्देनजर कई हलकों से ये भी शिकायत आ रही है कि ये कोर्ट की अति सक्रियता है और अदालत राजनीतिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही है। लेकिन इतना तय है कि ये मामला भविष्य के लिये एक नजीर बनेगा और भविष्य में केंद्र सरकारें धारा ३५६ के मनमाने इस्तेमाल से बाज आएंगी। मौजूदा हालात के मद्देनजर कह सकते हैं कि राष्ट्रपति शासन संबंधी निर्णय प्रक्रिया का है जिसमें केंद्र का दामन पाक-साफ नहीं दिख रहा।

उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले पर घिरने के बाद केंद्र सरकार यही दलील दोहराती आ रही थी कि राष्ट्रपति शासन इसलिए लगाया गया कि हरीश रावत सरकार अल्पमत में आ गई थी। अठारह मार्च को विनियोग विधेयक पारित होने के समय भाजपा और कांग्रेस के बागी विधायकों की मत विभाजन की मांग विधानसभा अध्यक्ष ने नहीं मानी। लेकिन जैसा कि सुनवाई कर रहे पीठ ने कहा, राज्यपाल ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी रिपोर्ट में इस बात का कोई जिक्र नहीं किया था कि पैंतीस विधायकों ने या कांग्रेस के बागी विधायकों ने मत विभाजन की मांग की थी। फिर, राष्ट्रपति शासन क्यों लागू हुआ, वह भी विश्वास-मत के लिए राज्यपाल की ओर से निर्धारित तारीख से ऐन एक दिन पहले! इसलिए असल मुद्दा यह नहीं है कि हाईकोर्ट के फैसले के फलस्वरूप राष्ट्रपति शासन हट जाने का लाभ किसको होगा, किसकी सरकार बनेगी। 

उत्तराखण्ड के एक पत्रकार वीरेन्द्र वर्तवाल की इस बेबाक टिप्पणी से भी यह स्पष्ट हो जाएगा कि राज्य की सियासत किस दिशा में जा रही है। हरीश रावत सरकार को 'ढेर' कर चुके उन्हीं की पार्टी के (तब) नौ विधायकों को अब ऐसी दोहरी वेदना से गुजरना पड़ेगा, जिसका अनुमान केवल वे ही लगा सकते हैं। एक तो भविष्य फ़िलहाल चौपट और उस पर रावत का सरकार बनाना इन लोगों के लिए ऐसी स्थिति होगी, जैसे किसी गरीब आदमी की उधार लायी भैंस मर गई और ऊपर से कर्जदार ने भैंस के पैसे न चुकाने पर मुकदमा दर्ज कर दिया। दरअसल, षड्यंत्रकारी के सभी यन्त्र-तन्त्र-मन्त्र फेल हो जाना और उसके दुश्मन द्वारा विजय प्राप्त करना उसके लिए किसी यंत्रणा से कम नहीं होता। अपमान और पराजय एक साथ आ जाएं तो आदमी का विचलित होना स्वाभाविक है। इस स्थिति से गुजर रहे नौ विद्रोही विधायक स्वयं ही इसके लिए उत्तरदायी हैं। 

हरक-बहुगुणा गुट ने भ्रष्टाचार, तानाशाही, मनमानी जैसे तीर फेंकते हुए हरीश रावत को 'छलनी' करने का प्रयास किया, पर ये बाण उनके लिए निराशा लेकर आए। कथित तौर पर हरीश रावत की पोल खोलने के लिए किये गए स्टिंग मसले पर हरीश रावत पर उंगलियां उठीं, पर हरक-बहुगुणा ग्रुप भी पवित्रता की दृष्टि से नहीं देखा गया। इसमें जनता ने अपना हित नहीं देखा। नौ विद्रोहियों में अधिकांश के दामन पर आरोपों के दाग लगे होने के कारण भाजपा इनके लिए अपने गेट नहीं खोलना चाहती है। भाजपा ने इनका इस्तेमाल मात्र इतना किया, जितना कभी गाँवों में सेही (सौला) को मारने के लिए आम की गुठली का इस्तेमाल किया जाता था। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि राज्य में कांग्रेस का एक गुट विलुप्त हो जायेगा और हरीश गुट मजबूती से उभरेगा। यहां तक कि धुर विरोधी रहे हरीश-इंदिरा गुट के लोग उत्तराखण्ड की सियासत में मजबूती से उभर सकते हैं, क्योंकि सियासत के सिद्धांत परिस्थितियों के अनुरूप बदल जाते हैं। अब देखना है कि आगे क्या होता है?

संपर्कः राजीव रंजन तिवारी, द्वारा- श्री आरपी मिश्र, ८१-एम, कृष्णा भवन, सहयोग विहार, धरमपुर, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश), पिन- २७३००६. फोन- ०८९२२००२००३.

 

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