अंकारा में तुर्की रेडियो एंड टेलीविजन (टीआरटी) नेटवर्क को सितम्बर 2013 में दिए साक्षात्कार में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा था कि उनके देश के लोगों ने उन्हें भारत से रिश्ते सुधारने का जनादेश दिया है। क्षेत्र में टिकाऊ शांति की बहाली के लिए मैंने भारत के साथ रिश्ते को हमेशा अहमियत दी है। हम भारत के साथ जम्मू-कश्मीर सहित सभी मुद्दों के समाधान के लिए समग्र बातचीत करना चाहते हैं। भारत के साथ शांति की प्रक्रिया की शुरुआत मैंने 1999 में तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के समय की थी। दोनों देश तब कश्मीर के समाधान के करीब पहुंचे थे। अब जरा नवाज शरीफ के उस वक्तव्य को अप्रैल 2016 के परिप्रेक्ष्य में देखिए। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि उनकी कथनी और करनी में कितना फर्क है। हालात ये है कि दोनों देश लगातार अपने रिश्ते को और बिगाड़ने की दिशा में बढ़ रहे हैं, जिसमें पाकिस्तान की भूमिका कुछ ज्यादा ही बढ़ी हुई दिखाई दे रही है। नित नए बनते-बिगड़ते हालात और घटनाक्रमों की गहन समीक्षा से तो यही पता चल रहा है कि दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधरने की गति रिश्ते बिगाड़ने की गति से धीमी है। यदि इसी गति से दोनों देशों के बीच खटास बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब स्थितियां और बद से बदतर हो जाएंगी। मौजूदा हालात को बेहद आसान शब्दों में यही कहा जा सकता है कि रिश्ते सुधारने के कथित प्रयास करते-करते दोनों देशों का अब अहम टकराने लगा है, जो रिश्ते में और खटास ही घोलेगा।
जनवरी 2016 में हुए पठानकोट आतंकी हमले के बाद भारत-पाक के विदेश सचिवों के बीच होने वाली वार्ता स्थगित हो गयी। इससे पहले हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं को दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग में वार्ता के लिये निमंत्रित किये जाने को लेकर इस्लामाबाद में होने वाली वार्ता रद्द हुई थी। दोनों देशों के बीच दुबारा बातचीत की शुरुआत का फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आकस्मिक पाकिस्तान दौरे का नतीजा माना गया। कुछ लोगों ने पीएम की आकस्मिक लाहौर-यात्रा का यह कहते हुए मजाक उड़ाया था कि इस तरह के दिखावटी और बनावटी कदमों से भारत-पाक रिश्ते बेहतर नहीं होंगे। यह बात सही है कि भारत-पाक जैसे जटिल रिश्तों वाले दो पड़ोसियों के मामले में दोनों तरफ से ज्यादा गंभीर और सुसंगत कूटनीति की दरकार है। लेकिन पीएम के दौरे को एक लाइन में खारिज करना सही नहीं था। उनकी कोशिश चाहे नुमायशी ही क्यों न हो, संभव है, कार्यक्रम की योजना कुछ पहले तय हुई होगी, इसके पीछे किसी बड़े उद्योगपति की भूमिका हो, इसके जरिये मीडिया की सुर्खियां बदलने का मकसद भी हो या यह महज एक ‘राजनीतिक नौटंकी’ हो। पर भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद की हर कोशिश का समर्थन किया जाना चाहिये। दोनों देशों के बीच रिश्तों की बेहतरी की हर कोशिश को पंचर करने वाली कट्टरपंथी मानसिकता को भी ऐसी पहल से कुछ झटका लगता है, जो अंततः दोनों देशों के हक में होता है। मोदी की लाहौर यात्रा के बाद यह भी कहा गया कि भारत-पाक रिश्ते महज इस एक यात्रा से नहीं सुधर जायेंगे। सरकार को साफ करना चाहिये कि आगे का उसका रोडमैप क्या है?
आरएसएस व अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों की विघ्न-भावना के अलावा इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री की एक और समस्या है। वह हमेशा अपनी छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। हर बार वह या उनके समर्थक कहते हैं कि भारत में ऐसा ‘पहली बार’ हो रहा है। लेकिन भारत-पाक रिश्तों की कूटनीति के मामले में ऐसा नहीं है। मोदी को अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों, खासकर एनडीए के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी और यूपीए के दस बरसों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री रह चुके डा.मनमोहन सिंह की पहल व उनकी सफलताओं-विफलताओं से सीखना होगा। वाजपेयी काल में लाहौर यात्रा के कुछ ही समय बाद करगिल में घुसपैठ को लेकर दोनों देशों के बीच युद्ध छिड़ा। उस वक्त भी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की ही सरकार थी। लेकिन आमतौर पर माना गया कि करगिल में पाक-घुसपैठ और फिर युद्ध छेड़ने का फैसला तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुर्शरफ का था। कुछ ही दिनों बाद पाकिस्तान में नवाज शरीफ को सत्ता से हटाकर मुशर्रफ ने सत्ता अपने हाथ में कर ली। उनके कार्यकाल की शुरुआत अच्छी नहीं थी। लेकिन सन 2004 के भारतीय चुनावों में भाजपा की हार के साथ केंद्र की वाजपेयी सरकार का पतन हुआ और डा. मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार बनी। सत्ता मे आने के बाद डा.सिंह ने दोनों देशों के रिश्तों को पटरी पर लाने की कोशिश तेज की। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि न्यूक्लियर ताकत से लैस दो पड़ोसियों के बीच टकराव ठीक नहीं हैं। अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिये भी रिश्तों का पटरी पर आना जरूरी है। उसी दौर में डा.सिंह ने वह सुप्रसिद्ध वाक्य अपने किसी संबोधन में प्रयोग किया-‘हम चाहते हैं कि पड़ोसियों से ऐसे रिश्तें हों कि अमृतसर में नाश्ता, लाहौर में दिन का भोजन और काबुल में रात के खाने के बाद फिर कोई दिल्ली लौट आये।’
ताजा हालात के मद्देनजर यह चर्चा करना जरूरी है कि भारत और पाकिस्तान के संबंधों का इतिहास “विचित्र किन्तु सत्य” किस्म की घटनाओं से भरा हुआ है। जब भी भारत और पाकिस्तान के संबंधों में सुधार होने की उम्मीद की मद्धिम-सी रोशनी नजर आती है, उसी समय कोई-न-कोई ऐसी घटना घट जाती है जो उस रोशनी पर अंधेरे की चादर डाल देती है। हालांकि भारत में विपक्षी दल पठानकोट के वायुसेना के ठिकाने पर हुए आतंकवादी हमलों की जांच में सहायता देने के उद्देश्य से आए पाकिस्तानी जांच दल का विरोध कर रहे थे, लेकिन सरकार और उसके समर्थक यह मान कर चल रहे थे कि इससे भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय संबंधों में सुधार की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी। ऐन मौके पर पाकिस्तान ने दावा पेश कर दिया कि उसने भारतीय नौसेना के एक कमांडर को बलोचिस्तान में गिरफ्तार किया है और वह भारतीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के लिए काम करता था तथा सरकार के खिलाफ विद्रोह कर रहे बलोचियों को सहायता पहुंचाता था। आरोप यह है कि बांग्लादेश की ही तर्ज पर भारत सरकार बलोच पृथकतावादियों को समर्थन और सहायता दे रही है और उसका लक्ष्य उसे पाकिस्तान से अलग करना है। जाधव की गिरफ्तारी पर पाकिस्तानी मीडिया में भी बहुत सनसनी फैली हुई है। पाकिस्तानी रक्षा विशेषज्ञ तो यहां तक कह रहे हैं कि पाकिस्तान को उसका अजमल कसाब मिल गया है किन्तु दोनों में बड़ा फर्क है कि जहां कसाब का पाक सरकार से संबंध नहीं था, वहीं गिरफ्तार भारतीय का संबंध नौसेना और रॉ से है। यानी बलूचिस्तान में भारत का हस्तक्षेप सिद्ध होता दीख रहा है।
वैसे सच्चाई क्या है, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन पाकिस्तान के कदम ने मोदी सरकार व उसके समर्थकों के इस दावे पर पानी फेर दिया है कि पाकिस्तानी जांच दल को, जिसमें खुफिया एजेंसी आईएसआई का एक उच्चाधिकारी भी शामिल है, पठानकोट आने की इजाजत देकर उसने भारत की ओर से इसी तरह का दल पाकिस्तान भेजकर मसूद अजहर जैसे आतंकी सरगनाओं से पूछताछ का रास्ता साफ कर लिया है। माना जा रहा था कि भारत के इस कदम की पाकिस्तान में सराहना की जाएगी कि उसने आईएसआई के आला अफसर और जांच दल के अन्य सदस्यों के लिए अपने बेहद संवेदनशील वायुसैनिक ठिकाने के दरवाजे खोल दिए, लेकिन हुआ इसका उल्टा ही है। अभी तक के घटनाक्रम को देख कर तो यही लगता है कि भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों में कदमताल चलती रहेगी और वे किसी न किसी कारण से आगे बढ़ने में असमर्थ रहेंगे। पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार और सेना-केंद्रित सत्ता प्रतिष्ठान के बीच पूर्ण सहमति न होना उनके रास्ते की रुकावट बना रहेगा। साथ ही दोनों देशों के रिश्ते के बीच अहम का टकराव भी आड़े आते दिख रहा है। बहरहाल, देखना है कि आगे क्या होता है?
संपर्कः राजीव रंजन तिवारी, द्वारा- श्री आरपी मिश्र, 81-एम, कृष्णा भवन, सहयोग विहार, धरमपुर, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश), पिन- 273006. फोन- 08922002003.